Tuesday, August 19, 2008

माना कड़ी धूप है

माना कड़ी धूप है फिर भी, मन ऐसा घबराया क्या?
सूखे हुए बबूलों से ही, चले मांगने छाया क्या?

सुना है उनके घर पर कोई साहित्यिक आयोजन है;
हम तो जाहिल ठहरे लेकिन, तुम्हें निमंत्रण आया क्या?

बच्चा एक तुम्हारे घर भी कचरा लेने आता है;
कभी किसी दिन, उसके सर पर, तुमने हाथ फिराया क्या?

बिटिया है बीमार गाँव में, लिक्खा है-घर आ जाओ;
कैसे जायें! घर जाने में, लगता नहीं किराया क्या?

ऐसे गुमसुम क्यों बैठे हो! आओ, हमसे बात करो।
यहाँ सभी तुम जैसे ही हैं; अपना कौन, पराया क्या?

7 comments:

  1. "बिटिया है बीमार गाँव में, लिक्खा है-घर आ जाओ;
    कैसे जायें! घर जाने में, लगता नहीं किराया क्या?"

    भावुकता से परिपूर्ण.
    बहुत खूब. शानदार.

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  2. बहुत खूब--
    बच्चा एक तुम्हारे घर भी कचरा लेने आता है;
    कभी किसी दिन, उसके सर पर, तुमने हाथ फिराया क्या?
    मानवीय संवेदनाओं से भरपूर रचनाएँ लिखते रहिये.
    सुधा ओम ढींगरा

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  3. bitiya hai bimaar gaon me......bahut marmic panktiya hai.shayad har garib pravasi majdoor ki bebsi bhi.badhai.

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  4. "कैसे जायें! घर जाने में, लगता नहीं किराया क्या?"

    Excellent thoughts!

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  5. बच्चा एक तुम्हारे घर भी कचरा लेने आता है;
    कभी किसी दिन, उसके सर पर, तुमने हाथ फिराया क्या?
    बिटिया है बीमार गाँव में, लिक्खा है-घर आ जाओ;
    कैसे जायें! घर जाने में, लगता नहीं किराया क्या?
    ये ऐसे शेर हैं जो अमूनन पढने को नहीं मिलते...गहरी संवेदना लिए ये शब्द अपनी छाप छोड़ने में पुर्णतः सफल हैं...आप के पास भाषा और सहजता का अद्भुत संगम है...
    नीरज

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  6. Maar daaleeye !!!
    Aapko kya pata kitna gahra ghaav chhod jaate hain yeh sher!

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