Wednesday, December 31, 2008
Monday, December 29, 2008
राजा का आसन
राजा का आसन डोला;
कहीं किसी ने सच बोला!
इस वासंती मौसम में,
किसने ये पतझर घोला?
दानिशवर ख़ामोश हुए;
जब मजनूं ने मुंह खोला।
जम कर लड़ा लुटेरों से
जिसका ख़ाली था झोला।
सारा जंगल सूखा है;
तू इक चिंगारी तो ला।
कहीं किसी ने सच बोला!
इस वासंती मौसम में,
किसने ये पतझर घोला?
दानिशवर ख़ामोश हुए;
जब मजनूं ने मुंह खोला।
जम कर लड़ा लुटेरों से
जिसका ख़ाली था झोला।
सारा जंगल सूखा है;
तू इक चिंगारी तो ला।
Friday, December 19, 2008
फूल अकेला
फूल अकेला ही बहार के मन्ज़र जैसा लगता है;
प्यासे को तो क़तरा-क़तरा सागर जैसा लगता है।
दीवारों का ये जंगल जिसमें सन्नाटा पसरा है-
जिस दिन तुम आ जाते हो, सचमुच घर जैसा लगता है।
उसका चरचा हो तो मन में लहरें उठने लगती हैं;
उसका नाम झील में गिरते कंकर जैसा लगता है।
छाया की उम्मीद करें क्या गमलों की हरियाली से;
नया शहर बूढ़ी आंखों को बंजर जैसा लगता है।
इस निज़ाम में अहल-ऐ-जुनूं कुछ कर गुज़रें तो कर गुज़रें;
अहल-ऐ-ख़िरद की बातें सुन कर तो डर जैसा लगता है।
प्यासे को तो क़तरा-क़तरा सागर जैसा लगता है।
दीवारों का ये जंगल जिसमें सन्नाटा पसरा है-
जिस दिन तुम आ जाते हो, सचमुच घर जैसा लगता है।
उसका चरचा हो तो मन में लहरें उठने लगती हैं;
उसका नाम झील में गिरते कंकर जैसा लगता है।
छाया की उम्मीद करें क्या गमलों की हरियाली से;
नया शहर बूढ़ी आंखों को बंजर जैसा लगता है।
इस निज़ाम में अहल-ऐ-जुनूं कुछ कर गुज़रें तो कर गुज़रें;
अहल-ऐ-ख़िरद की बातें सुन कर तो डर जैसा लगता है।
Wednesday, December 17, 2008
दिल ने यूं तो
दिल ने यूं तो बहाने बनाए बहुत;
फिर भी तुम बारहा याद आए बहुत।
दर्द का भी एहतराम पूरा किया;
खिलखिलाए बहुत, मुस्कराए बहुत।
खण्डहरों में कभी कोई ठहरा नहीं;
पर इन्हें देखने लोग आए बहुत।
हम तो बदनाम मयक़श थे, चलते रहे;
वाइज़ों के क़दम डगमगाए बहुत।
धूप से यूं न डर; घर से बाहर निकल,
राह में हैं दरख़्तों के साए बहुत।
फिर भी तुम बारहा याद आए बहुत।
दर्द का भी एहतराम पूरा किया;
खिलखिलाए बहुत, मुस्कराए बहुत।
खण्डहरों में कभी कोई ठहरा नहीं;
पर इन्हें देखने लोग आए बहुत।
हम तो बदनाम मयक़श थे, चलते रहे;
वाइज़ों के क़दम डगमगाए बहुत।
धूप से यूं न डर; घर से बाहर निकल,
राह में हैं दरख़्तों के साए बहुत।
Subscribe to:
Posts (Atom)