Wednesday, January 27, 2010

बीन का

बीन का रागिनी से रिश्ता हो
साँस का ज़िन्दगी से रिश्ता हो

ऐसी बस्ती बसाइये जिसमें
सबका सबकी ख़ुशी से रिश्ता हो

अपनी गिनती है देवताओं में
किस लिये आदमी से रिश्ता हो

ये दुमहले गिरें तो अपना भी
धूप से, रौशनी से रिश्ता हो

अब तो राजा हैं द्वारिका के किशन
किस लिये बाँसुरी से रिश्ता हो

7 comments:

  1. बहुत सुंदर रचना
    धन्यवाद

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  2. सर, सबका खुशी से रिश्ता जोड़ना तो मेरे विचार में तभी संभव हो पाएगा, जब यह कथित देवता अपनी बंसी बजाना छोड़ धरातल पर आयेंगे और, आम जिन्दगी को समझ उसकी रौ को बदलने के प्रयास में दम लगायेंगे, बहरहाल कविता वाकई शानदारलगी...

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  3. बहुत सुंदर कविता जी
    धन्यवाद

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  4. अच्छे भाव , सुंदर रचना

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  5. हकीक़त का बहुत बढ़िया चित्रण !शुभकामनायें !

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  6. मिक्स्ड भावों की ग़ज़ल है डाक्टर साहब ये तो , आगाज़ में जो आशावाद है आगे चलते-चलते व्यंग में बदल जाता है :) और जब व्यंग करतें हैं आप तो शायद स्वप्नों से ज्यादा आवाज़ करते हैं वो आपके शेर! पर मतले में छुपी यह बात कि क्या जो सांस ले रहें हैं वह जीवन भी कोई जीवन है... यह चुपचाप साथ हो लेती है...आपकी साईट छोड़ने के बाद भी...
    "ऎसी बस्तियां बसाईये जिसमें, सब का सब की खुशी से रिश्ता हो" ... ये भी सुंदर कामना और हमारे अलग अलग island की तरह कटते जीवन पे प्रहार भी ... वैसे अगर आपकी कलम ने ये लिखा है तो ये तो मान के चलती हूँ कि ये आप मन के रिश्ते की और सोच के रिश्ते की बात कर रहें हैं और जबरन एक-दूसरे की ज़िंदगी में दखल की नहीं :) :) क्योंकि personal space के बारे में आप से अधिक कौन समझता है...
    'अपनी गिनती ही ..." आपको सुना है इसलिए इमागिने भी कर सकती हूँ कि कितने smirk करते हुए आप ये शेर पढेंगे :) बहुत तीखा व्यंग!
    "ये दुमहले गिरें...." ये तो डायरेक्ट प्रहार :) :) ... बस एक बात.. कि दुमहलों में भी तो....कोई होगा जो शायद ...
    मकते में... द्वारकानाथ का बांसुरी से रिश्ता टूटा जाता है इस बिम्ब का भी बहुत सुन्दर प्रयोग है .
    कुल मिला के मुकम्मल ग़ज़ल ... पर दादा, शायद ऎसी नहीं कि याद रह जाए ...
    ऎसी भी लिखये न फ़िर से जो बस यूँ पैठ जाए ज़हन में कि निकले ही न!

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  7. बेहतरीन ग़ज़ल कही है आपने...मुझे आने में देर हुई...पता नहीं कहाँ अटका पड़ा था...हर शेर मुकम्मल है...दाद कबूल करें
    नीरज

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