किसे अजनबी कहें किसे अनजाना मन
जब हर शख्स लगे जाना-पहचाना मन
पता पूछते हैं भोले बस्ती वाले
बंजारों का कैसा ठौर-ठिकाना मन
सुख आया दो पल ठहरा फिर लौट गया
दुःख ने ही सीखा है साथ निभाना मन
जिस मूरत को छुआ वही पत्थर निकली
धीरे-धीरे टूटा भरम पुराना मन
यहां ठहरना अपने बस की बात कहां
लगा रहेगा यूं ही आना-जाना मन
सन्नाटों में उम्र बिताई है फिर भी
सन्नाटों के आदी मत हो जाना मन
मंजिल एक छलावा ही तो है तुम तो
चलते-चलते राहों में खो जाना मन