किसे अजनबी कहें किसे अनजाना मन
जब हर शख्स लगे जाना-पहचाना मन
पता पूछते हैं भोले बस्ती वाले
बंजारों का कैसा ठौर-ठिकाना मन
सुख आया दो पल ठहरा फिर लौट गया
दुःख ने ही सीखा है साथ निभाना मन
जिस मूरत को छुआ वही पत्थर निकली
धीरे-धीरे टूटा भरम पुराना मन
यहां ठहरना अपने बस की बात कहां
लगा रहेगा यूं ही आना-जाना मन
सन्नाटों में उम्र बिताई है फिर भी
सन्नाटों के आदी मत हो जाना मन
मंजिल एक छलावा ही तो है तुम तो
चलते-चलते राहों में खो जाना मन
जिस मूरत को छुआ वही पत्थर निकली...
ReplyDeleteधीरे धीरे टूटा भरम , पुराना मन !
बहुत बढ़िया भाई जी ! एक एक लाइन बार बार पढने और समझने का मन करता है ! बहुत खूबसूरत ....
हार्दिक शुभकामनायें !
कितनी सुन्दर बातें! खास कर आज जब बहुत ज़रुरत महसूस हो रही है इनकी. बहुत बहुत आभार...फ़िर से आउंगी पूरी टिप्पणी लिखने.सादर शार्दुला
ReplyDeleteBahut Sunder...Arthpoorn Panktiyan
ReplyDeleteधीरे धीरे टूटा भरम पुराना , मन
ReplyDeleteग़ज़ल के इस सुन्दर शेर के माध्यम से
जिंदगी की कड़वी सच्चाई को बयान कर दिया आपने ..
वाह !!
बहुत सुन्दर रचना .
bahut sundar rachna saral shabdon mein
ReplyDeleteआदरणीय अमर दा,
ReplyDeleteसन्नाटों में उम्र बिताई है फ़िर भी/ सन्नाटों के आदी मत हो जाना मन ... बहुत सुन्दर! आपके हस्ताक्षर हैं इस शेर पे! 'आँखों में कल का सपना है' याद आ गया.
जिस मूरत को छुआ वही पत्थर निकली, धीरे धीरे टूटा भरम पुराना मन...ये मिसरे आपके पर्दा हटाने वाले हाथों ने लिखें हैं. जानते हैं आपके जीमेल स्टेटस पे ये शेर कब से है और कभी भी मुझे ये पत्थर की मूरत पत्थर की नहीं दिखी...मिट्टी की दिखती है ये दा :) अब आप कहेंगे..हम हैं मिट्टी के, जिस मूरत की बात कर रहा हूँ वह पत्थर की ही है...सो कुबूल!
मतले को देख रही हूँ ...क्या बात है! इस बार आपने बड़ा रहम खाया :)...नहीं तो हर शख्स को अजनबी भी कह सकती है कलम आपकी:) बहुत सुन्दर है ये शेर.
यहाँ ठहरना अपने बस की बात कहाँ, लगा रहेगा यूँ ही आना जान मन.... मुझे ये शेर बहुत ही खूबसूरत लगा...आपको कहते हुए देख सकती हूँ इसे, एक निश्वास छोड़ते हुए! "यहाँ" और "अपने बस की बात" के कई चित्र तुरंत खिंच जाते हैं मन में. दार्शनिक दृष्टि से देखूं तो जीवन भी परिभाषित है इन मिसरों में.
मंजिल एक छलावा ही तो है तुम तो, चलते चलते राहों में खो जाना मन ... चलते चलते राहों में खो जाना मन. वाह! वाह! ये बहुत ही खूबसूरत है दा! यहाँ मिसरा ऊला में दो बार 'तो' देख के मुस्कुरा दी :)
सुख आया दो पल ठहरा.... ये शाश्वत भाव है! अब आगे की सीढ़ी है सुख -दुःख में ही भेद न हो...शायद फ़िर "लगा रहेगा आना जाना" ..से भी छुटकारा! आमीन!
आपको पढना हमेशा बहुत सुखद और enriching जान पड़ता है मुझे.
आपने साल भर से जो ब्लॉग पे कुछ नहीं लिखा उसका मुआवजा?? :(
एक दनदनाती हुई सी ग़ज़ल लिखये न अमर दा!
सादर शार