गीत
पी के देखा हर नशा हर विष पिया,
किंतु फ़िर भी वेदना सोई नहीं।
घर से निकले थे बड़ी उम्मीद से
सब समस्याओं का हल मिल जायेगा.
इस मरुस्थल की नहीं सीमा तो क्या,
इस मरुस्थल में ही जल मिल जायेगा।
प्यास तन-मन की मगर ऐसी बढ़ी,
दिल दुखा तो आँख तक रोई नहीं।
वास्तविकताएँ चुभीं कुछ इस तरह
जग गए हम और सपने सो गए.
घिर गए कुछ यूं अपरिचित भीड़ में,
सारे परिचित,सारे अपने खो गए।
मुड़ के देखा भी कभी तो दूर तक,
वापसी का रास्ता कोई नहीं।
आज तक तो जैसे-तैसे काट ली,
कल कहाँ जायेंगे कुछ भी तय नहीं.
दोपहर की रोटियाँ तो जुट गईं
शाम क्या खाएंगे कुछ भी तय नहीं।
जिंदगी के अनवरत संघर्ष में,
कौन सी निधि है कि जो खोई नहीं.
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