हों ॠचायें वेद की या आयतें क़ुरआन की
खो गई इन जंगलों में अस्मिता इन्सान की
कैसी तनहाई! मेरे घर महफ़िलें सजती हैं रोज़
सूर, तुलसी, मीर,ग़ालिब, जायसी, रसखान की
कितने होटल, मॉल,मल्टीप्लेक्स उग आये यहां
कल तलक हंसती थीं इन खेतों में फ़सलें धान की
इस कठिन बनवास में मीलों भटकना है अभी
तुम कहां तक साथ दोगी; लौट जाओ जानकी
तुम भी कैसे बावले हो; अब तो कुछ समझो नदीम
अजनबी आँखों में मत खोजो चमक पहचान की
ऐसी कवितायें रोज रोज पढने को नहीं मिलती...इतनी भावपूर्ण कवितायें लिखने के लिए आप को बधाई...शब्द शब्द दिल में उतर गयी.
ReplyDeleteबहुत खूब, लाजबाब !
ReplyDeleteवाह! कमाल की रचना है! अब तक कहाँ थे?
ReplyDeleteसंजय जी निल्कुल सही कहा!ऐसी कविताएं रोज-रोज नहीं मिलती पढने को!
ReplyDeleteबहुत ही सुलझी हुई और जबरदस्त रचना.....
कुंवर जी,
bahut sunder rachana......
ReplyDeleteaabhar
bahut khoob waah sir...
ReplyDeleteबहुत खुब कहा आप ने जी इस कविता मै, बहुत् अच्छी लगी आप की यह कविता. धन्यवाद
ReplyDeleteMatla chhod ke baaki sab sher bahut sunder...
ReplyDeletesadar shardula
आपके मतले से पूरी तरह से असहमत...ऐसा नहीं कि आप जो कहना चाह रहे हैं वह समझी नहीं हूँ ...पर ये नहीं समझी कि आप लोग ऐसा क्यों कहना चाहते हैं :(
ReplyDeleteशिल्प के हिसाब से सुन्दर शेर!
अरे दादा आपकी महफ़िल से कबीरा कहाँ उठ के चले गए :) बहुत ही खूब शेर...एकदम सच... सो सोने पे सुहागा...यूँ ही आपके मन में ज्ञान के दीप जलते रहें, आपकी महफ़िलों की शम्म रोशन रहे!
होटल वाला शेर सुन्दर है... पर ऊपर वाले शेरों के धागे से छूट रहा है... यानि मन के चेनल को स्विच करना पड़ रहा है. ऐसा अक्सर होता है औरों की ग़ज़लों में, आपकी ग़ज़लों में होता है ऐसा याद नहीं पड़ रहा. शेर सामयिक है, परम सत्य है. आज भी किसान लाखों रूपये का क़र्ज़ ले के देश-विदेशों में मजदूरी करने आते हैं...बुरे हाल में रहते हैं... उधर समाज का अमीर वर्ग ओरगेनिक-ओरगेनिक की शोर मचा रहा है ... जो साधारण सा, सरल सा जीवन चक्र था उसे हमने खुद ही distort कर लिया है.
जानकी वाले शेर के कारण वापस आयी हूँ इस ग़ज़ल पे ... निशब्द हूँ. कुछ नहीं कह पाउंगी. नमन! बस यूँ ही समझते रहे ... लिखते रहे दादा!
सादर, शार्दुला
हों ऋचाएं वेद की या आयतें कुरआन की,
ReplyDeleteअहमियत तो आज है बस लीडरी फरमान की |
मित्र ग़ज़ल बहुत अच्छी है, सामयिक भी है, बुरा न मानें प्रत्येक शेर अपनी जगह अपने आप में मुकम्मिल है लेकिन अच्छा लगता अगर पूरी ग़ज़ल का विषय एक ही होता | जानकी वाला शेर बहुत सुन्दर है |
बहुत बहुत बधायिआन | आपकी ग़ज़ल की ज़मीन पर एक शेर लिखने की हिम्मत की है, उम्मीद है बुरा नहीं मानेंगे | कुंवर शिव प्रताप सिंह