गेहूं,चने,ज्वार मेरे तुम काट ले गये
अब मैनें सपने बोये हैं;- क्या कर लोगे ?
पण्डित जी, पैलाग, चलो बस रस्ता नापो
होरी अब गोदान नहीं, कुछ और करेगा
भेद खुल चुका धरम-करम और पुन्य-पाप का
जो करना है – आज,अभी, इस ठौर करेगा।
लेखपाल जी, मेरे सारे खेत बिक गये
अब बोलो मेरा कैसे नुकसान करोगे?
मुझे खतौनी खसरा कुछ भी नहीं चाहिये
मैं तो अब नंगा हूं; मुझसे क्या ले लोगे?
हवलदार जी मेरा मूंगफली का ठेला
छूट गया है- क्या छीनोगे क्या खाओगे?
सचमुच बहुत तरस आता है तुम लोगों पर
मैं न रहा तो तुम भी भूखे मर जाओगे।
अब मैं चौराहे पर हूं- वो भी कितने दिन!
आज नहीं तो कल रस्ता तय कर ही लूंगा;
और चल पड़ा जब तो रुकने की तो छोड़ो;
ये न समझना पीछे मुड़ कर भी देखूंगा।
भ्रष्टाचार पर अच्छा कटाक्ष है...
ReplyDeleteहोरी अब गौदान नही ...
ReplyDeleteवाह बहुत खूब
स्वरूप बदल गया है
oh kisaano ka dard kya khoob ubhara...bahut maarmik aur vicharneey
ReplyDeleteभ्रष्टाचारियो को आप ने अच्छा आईना दिखाया. धन्यवाद
ReplyDeletedahladene walee rahee aapkee abhivykti .
ReplyDeletebahut khub
ReplyDeleteफिर से प्रशंसनीय रचना - बधाई
Ek dum maulik, Bahut hee khoob!!
ReplyDeleteFir se aaungi is rachna par.
sadar ...shar
कमाल है भाई जी ! कहाँ तक पंहुच गए ! हार्दिक शुभकामनायें !!!
ReplyDeleteबहुत ही भावपूर्ण निशब्द कर देने वाली रचना . गहरे भाव.
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