उनकी महफ़िल है फ़क़त हंसने हंसाने के लिये
कौन जाये दर्द की गाथा सुनाने के लिये
जेब में मुस्कान रख कर घूमता है आदमी
जब जहां जैसी ज़रूरत हो दिखाने के लिये
ले गये कमज़र्फ हंस हंस कर वफ़ाओं की सनद
हम सरीखे ही बचे हैं आज़माने के लिये
गाँव में क्या था कि रुकते खेत घर सब बिक चुके
अब भटकते हैं शहर में आब-ओ-दाने के लिये
आज फिर राजा को नंगा कह गया सरकश कोई
फिर से हैं तैयारियां मकतल सजाने के लिये
बहुत ही खूबसूरत, पैनी ग़ज़ल!
ReplyDeleteजेब में मुस्कान रख कर घूमता है आदमी...-- >याद हो जाने वाला मिसरा! बहुत खूब!
जब जहाँ जैसी ज़रुरत हो दिखाने के लिए ...--> बेहद तीखा. इसमें एक बढ़िया बात-- जो इसे 'मुस्कराहट से ग़म छुपाने ' वाले अशआर से अलग करता है ...वह यह कि यहाँ 'जब जहाँ जैसी ज़रुरत' ... में बड़ा तंज है!
हम सरीखे ही बचे हैं आजमाने के लिए... :) वाह वाह --> थोड़ी हंसी, थोड़ा deja vu से भरा शेर है ये!
मक्ता आपका हस्ताक्षर है इस ग़ज़ल में! गज़ब! सरकश कितना सुन्दर बैठ रहा है शेर में. क्या बात है...क्या मिजाज़ हैं शेर के! आज बाज़ार में पा-ब-जौला चलो...की याद आ गई!
पूरी ग़ज़ल खूबसूरत है! दर्द सुनाने और आबोदाने वाला शेर भी बेहतरीन!
यूँ ही लिखते रहें! सादर शार्दुला
बेहद खूबसूरत ...
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