बाग़ों में प्लॉट कट गए, अमराइयाँ कहाँ!
पूरा बरस ही जेठ है, पुरवाइयाँ कहाँ!
उस डबडबाई आँख मे उतरे तो खो गए;
सारे समंदरों में वो गहराइयाँ कहाँ!
सरगम का, सुर का, राग का, चरचा न कीजिये;
‘डी जे’ की धूमधाम है; शहनाइयाँ कहाँ!
क़ुरबानियों में कौन सी शोहरत बची है अब?
और बेवफ़ाइयों में भी रुसवाइयाँ कहाँ!
कमरे से एक बार तो बाहर निकल नदीम;
तनहा दिलों की भीड़ है, तनहाइयाँ कहाँ!