Saturday, August 30, 2008

बाग़ों में

बाग़ों में प्लॉट कट गए, अमराइयाँ कहाँ!

पूरा बरस ही जेठ है, पुरवाइयाँ कहाँ!


उस डबडबाई आँख मे उतरे तो खो गए;

सारे समंदरों में वो गहराइयाँ कहाँ!


सरगम का, सुर का, राग का, चरचा न कीजिये;

डी जे की धूमधाम है; शहनाइयाँ कहाँ!


क़ुरबानियों में कौन सी शोहरत बची है अब?

और बेवफ़ाइयों में भी रुसवाइयाँ कहाँ!


कमरे से एक बार तो बाहर निकल नदीम;

तनहा दिलों की भीड़ है, तनहाइयाँ कहाँ!

Saturday, August 23, 2008

घर में

घर में बैठे रहे अकेले, गलियों को वीरान किया;
अपना दर्द छुपाए रक्खा; तो किस पर एहसान किया?

दुखियारों से मिल कर दुख से लड़ते तो कुछ बात भी थी;
कॉकरोच सा जीवन जीकर, कहते हो बलिदान किया!

दैर-ओ-हरम वालों का पेशा फ़िक्र-ए-आक़बत है तो हो;
हमने तो चूल्हे को ख़ुदा और रोटी को ईमान किया।

किशन-कन्हैया गुटका खा कर जूते पॉलिश करता है;
पर तुमने मन्दिर में जाकर माखन-मिसरी दान किया।

मज़हब,ज़ात,मुकद्दर,मंदिर-मस्जिद,जप-तप,हज,तीरथ,
दानाओं ने नादानों की उलझन का सामान किया।

कड़ी धूप थी; रस्ते में कुछ सायेदार दरख़्त मिले;
साथ नहीं चल पाए फिर भी कुछ तो सफ़र आसान किया।

Friday, August 22, 2008

सुबह-सवेरे

सुबह-सवेरे सिला बीनने जाती है रज्जो की अम्मा;
किलो-दो किलो नाज रोज़ ले आती है रज्जो की अम्मा।

उसमें से भी थोड़ा सा लाला जी की दुकान पर दे कर,
नमक, तेल, आलू, थोड़ा गुड़ लाती है रज्जो की अम्मा।

रज्जो हुई सयानी, कैसे पार लगेगी, सोच-सोच कर,
रात-रात भर जगती ही रह जाती है रज्जो की अम्मा।

अगले साल पेंशन बँधवा देंगे, कहते हैं प्रधान जी;
उनके घर भी न्यार-फूस कर आती है रज्जो की अम्मा।

रज्जो के बाबू थे, बुग्गी थी, तब कितना सुख था; अक्सर,
बीते कल की यादों में खो जाती है रज्जो की अम्मा।

Tuesday, August 19, 2008

माना कड़ी धूप है

माना कड़ी धूप है फिर भी, मन ऐसा घबराया क्या?
सूखे हुए बबूलों से ही, चले मांगने छाया क्या?

सुना है उनके घर पर कोई साहित्यिक आयोजन है;
हम तो जाहिल ठहरे लेकिन, तुम्हें निमंत्रण आया क्या?

बच्चा एक तुम्हारे घर भी कचरा लेने आता है;
कभी किसी दिन, उसके सर पर, तुमने हाथ फिराया क्या?

बिटिया है बीमार गाँव में, लिक्खा है-घर आ जाओ;
कैसे जायें! घर जाने में, लगता नहीं किराया क्या?

ऐसे गुमसुम क्यों बैठे हो! आओ, हमसे बात करो।
यहाँ सभी तुम जैसे ही हैं; अपना कौन, पराया क्या?

Monday, August 18, 2008

इक तरफ़ तो

इक तरफ़ तो दूर कश्ती से किनारा है बहुत;
नाख़ुदाओं का भी तूफ़ाँ को इशारा है बहुत।

प्यास बुझने की तुम्हें उम्मीद जिस सागर से है,
कितनी नदियां पी चुका है;फिर भी खारा है बहुत।

बादबानी कश्तियाँ खायें हवाओं का फ़रेब;
हमको अपने बाज़ुओं का ही सहारा है बहुत।

ख़ुद को वो समझे थे लेनिन और फ़रमाया किये,
चेतना-वंचित यहां का सर्वहारा है बहुत।

भीड़ में तो ख़ैर निष्ठुरता का अभिनय ही रहा;
सच कहूं! एकांत में, तुमको पुकारा है बहुत।

Saturday, August 16, 2008

फूल किसी जंगल का

फूल किसी जंगल का आँसू;
क़तरा है बादल का आँसू।

सदियों की सूखी आँखों से,
आज अचानक छलका आँसू।

मुस्कानों के सारे परदों
के पीछे से झलका आँसू।

बेमन से घर छोड़ा शायद;
थमा रहा, फिर ढलका आँसू।

रुका-रुका सा खोज रहा है-
छोर किसी आँचल का आँसू।

Thursday, August 14, 2008

रवाँ हों अश्क

रवाँ हों अश्क, लबों पर हँसी नज़र आये;
चिता की लौ में नई ज़िन्दगी नज़र आये।

धुएं से यूं न डर ए दोस्त! बहुत मुमकिन है,
धुएं के पार कोई रौशनी नज़र आये।

क़दम-क़दम पे फ़रिश्तों की भीड़ मिलती है;
कभी, कहीं तो कोई आदमी नज़र आये।

समदरों ने भला किसकी प्यास को सींचा!
उन्हें कहाँ से मेरी तश्नगी नज़र आये।

ये काला चश्मा ही परदा मेरे वजूद का है;
हटे तो सबको मेरी बेक़सी नज़र आये।

Wednesday, August 13, 2008

कभी हिंदुत्व

कभी हिंदुत्व पर संकट, कभी इस्लाम ख़तरे में;
ये लगता है कि जैसे हैं सभी अक़वाम ख़तरे में।

उधर फ़तवा कि खेले सानिया सलवार में टेनिस;
ज़मीनों के लिये हैं, इस तरफ़ श्री राम ख़तरे मे।

दहाड़े रात भर माइक पे, देवी-जागरण वाले;
मुहल्ले भर के गोया नींद और आराम ख़तरे में।

ये 'ग्लोबल कारपोरेटों' का हमला है,पड़ेगा ही-
मुहब्बत का, वफ़ा का, दोस्ती का नाम ख़तरे में।

पुजेंगे गोडसे और गोलवरकर, फिर तो आयेगा
कबीर ओ गौतम ओ नानक का हर पैग़ाम खतरे में।

Monday, August 11, 2008

कहां गए

कहां गए वो लड़कपन के ख़्वाब, मत पूछो;
कड़ा सवाल है, इसका जवाब मत पूछो।

अकेले मेरे दुखों की कहानियां छोड़ो;
समंदरों में लहर का हिसाब मत पूछो।

मुबारकों की रवायत है कामयाबी पर,
कि कौन कैसे हुआ कामयाब, मत पूछो।

जो हर कदम पे मेरे साथ है, वो तनहाई
मेरा नसीब है या इंतख़ाब, मत पूछो।

अमावसों में चराग़ों का इंतज़ाम करो;
कहां फ़रार हुआ आफ़ताब मत पूछो।

Saturday, August 9, 2008

पसीने के

गए वो दिन कि ज़ुल्फ़ों-गेसुओं में रास्ता खोजो।
पसीने के, धुएं के,जंगलों में रास्ता खोजो;

अमावस के अँधेरों में कभी सूरज नहीं दिखता;
दियों के,जुगनुओं के हौसलों में रास्ता खोजो।

ये माना हर नदी नीले समंदर तक नहीं जाती;
मगर ये क्या!कि इन अँधे कुओं में रास्ता खोजो।

पुराने नाख़ुदाओं के भरोसे डूबना तय है;
ख़ुद अपने बाज़ुओं की कोशिशों में रास्ता खोजो।

न कोई नक्श-ए-पा है,और न संग-ए-मील है कोई;
मुसाफ़िर गुलशनों के, ख़ुशबुओं में रास्ता खोजो।

Friday, August 8, 2008

जो कुछ भी

जो कुछ भी करना है, कर ले;
इसी जनम में जी ले, मर ले।

अवतारों की राह देख मत;
छीन-झपट कर झोली भर ले।

सीख तैरना अपने बल पर;
डूबेगी यह नाव; उतर ले।

सच में लगा झूठ के पहिये;
ये बोझा मत अपने सर ले।

वेद-क़ुरानों के बदले में

गिनती के ‘ढाई आखर’ ले।

Thursday, August 7, 2008

अबकी बार

अबकी बार दिवाली में जब घर आएँगे मेरे पापा
खील, मिठाई, चप्पल, सब लेकर आएँगे मेरे पापा।

दादी का टूटा चश्मा और फटा हुआ चुन्नू का जूता,
दोनों की एक साथ मरम्मत करवाएँगे मेरे पापा।

अम्मा की धोती तो अभी नई है; होली पर आई थी;
उसको तो बस बातों में ही टरकाएंगे मेरे पापा।

जिज्जी के चेहरे की छोड़ो, उसकी आंखें तक पीली हैं;
उसका भी इलाज मंतर से करवाएँगे मेरे पापा।

बड़की हुई सयानी, उसकी शादी का क्या सोच रहे हो?
दादी पूछेंगी; और उनसे कतराएंगे मेरे पापा।

बौहरे जी के अभी सात सौ रुपये देने को बाकी हैं;
अम्मा याद दिलाएगी और हकलाएंगे मेरे पापा।

Wednesday, August 6, 2008

कह गया था

कह गया था, मगर नहीं आया;
वो कभी लौट कर नहीं आया।

क़ाफिले में तमाम लोग थे पर,
बस वही हमसफ़र नहीं आया।

रेल तो टर्मिनस पे आ  पहुंची;
किंतु मेरा शहर नहीं आया।

ऐसा क्यों लगता है कि जैसे वो,
आ तो सकता था, पर नहीं आया।

एक मेरी बिसात क्या, सुख तो
जाने कितनों के घर नहीं आया।

Tuesday, August 5, 2008

बचपन

भोर सकारे जैसा बचपन;
ये उजियारे जैसा बचपन।

प्यासी आंखें, सूखा चेहरा,
झील किनारे जैसा बचपन।

मत्था टेके; रोटी मांगे;
ये गुरुद्वारे जैसा बचपन

काँटे पहने भटक रहा है,
ये गुब्बारे जैसा बचपन।

कचरा बीन रहा सड़कों पर
चन्दा-तारे जैसा बचपन।

Monday, August 4, 2008

रिक्शे वाले

मेरे घर के बाहर अक्सर आ जाते हैं रिक्शे वाले;
सुख-दुख की गपशप से दिल बहला जाते हैं रिक्शे वाले।

जेठ माह की दोपहरी में जब कर्फ़्यू सा लग जाता है,
अमलतास की छाया में सुस्ता जाते हैं रिक्शे वाले।

गंगा-पार, बदायूं, छपरा, भागलपुर, और बर्दवान के,
कितने किस्से आपस में दोहरा जाते हैं रिक्शे वाले।

रिक्शा धोना, कुछ पल सोना, बीड़ी पीना, कपड़े सीना-
कितने सारे काम यहां निपटा जाते हैं रिक्शे वाले।


सड़कों के गड्ढे, टायर के बढ़ते दाम, पुलिस की गाली,
सब पर अपनी-अपनी राय बता जाते हैं रिक्शे वाले।

मिले सवारी तो झटपट पैसे तय कर के चल पड़ते हैं;
वरना दो-दो घण्टे यहीं बिता जाते हैं रिक्शे वाले।

Sunday, August 3, 2008

दाल-रोटी

पेट भरते हैं दाल-रोटी से।
दिन गुज़रते हैं दाल-रोटी से।

दाल रोटी न हो, तो जग सूना ;
जीते-मरते हैं दाल-रोटी से।

इतने हथियार,इतने बम-गोले!
कितना डरते हैं दाल-रोटी से!

कैसे अचरज की बात है यारो!
लोग मरते हैं दाल-रोटी से।

जो न सदियों में हो सका,पल में
कर गुज़रते हैं दाल-रोटी से।

लोग दीवाने हो गये हैं नदीम,
खेल करते हैं दाल-रोटी से।