इक तरफ़ तो दूर कश्ती से किनारा है बहुत;
नाख़ुदाओं का भी तूफ़ाँ को इशारा है बहुत।
प्यास बुझने की तुम्हें उम्मीद जिस सागर से है,
कितनी नदियां पी चुका है;फिर भी खारा है बहुत।
बादबानी कश्तियाँ खायें हवाओं का फ़रेब;
हमको अपने बाज़ुओं का ही सहारा है बहुत।
ख़ुद को वो समझे थे लेनिन और फ़रमाया किये,
चेतना-वंचित यहां का सर्वहारा है बहुत।
भीड़ में तो ख़ैर निष्ठुरता का अभिनय ही रहा;
सच कहूं! एकांत में, तुमको पुकारा है बहुत।
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"भीड़ में तो ख़ैर निष्ठुरता का अभिनय ही रहा;
ReplyDeleteसच कहूं! एकांत में, तुमको पुकारा है बहुत। "
बहुत खूब.
बहुत उम्दा....