घर में बैठे रहे अकेले, गलियों को वीरान किया;
अपना दर्द छुपाए रक्खा; तो किस पर एहसान किया?
दुखियारों से मिल कर दुख से लड़ते तो कुछ बात भी थी;
कॉकरोच सा जीवन जीकर, कहते हो बलिदान किया!
दैर-ओ-हरम वालों का पेशा फ़िक्र-ए-आक़बत है तो हो;
हमने तो चूल्हे को ख़ुदा और रोटी को ईमान किया।
किशन-कन्हैया गुटका खा कर जूते पॉलिश करता है;
पर तुमने मन्दिर में जाकर माखन-मिसरी दान किया।
मज़हब,ज़ात,मुकद्दर,मंदिर-मस्जिद,जप-तप,हज,तीरथ,
दानाओं ने नादानों की उलझन का सामान किया।
कड़ी धूप थी; रस्ते में कुछ सायेदार दरख़्त मिले;
साथ नहीं चल पाए फिर भी कुछ तो सफ़र आसान किया।
अपना दर्द छुपाए रक्खा; तो किस पर एहसान किया?
दुखियारों से मिल कर दुख से लड़ते तो कुछ बात भी थी;
कॉकरोच सा जीवन जीकर, कहते हो बलिदान किया!
दैर-ओ-हरम वालों का पेशा फ़िक्र-ए-आक़बत है तो हो;
हमने तो चूल्हे को ख़ुदा और रोटी को ईमान किया।
किशन-कन्हैया गुटका खा कर जूते पॉलिश करता है;
पर तुमने मन्दिर में जाकर माखन-मिसरी दान किया।
मज़हब,ज़ात,मुकद्दर,मंदिर-मस्जिद,जप-तप,हज,तीरथ,
दानाओं ने नादानों की उलझन का सामान किया।
कड़ी धूप थी; रस्ते में कुछ सायेदार दरख़्त मिले;
साथ नहीं चल पाए फिर भी कुछ तो सफ़र आसान किया।
"दुखियारों से मिल कर दुख से लड़ते तो कुछ बात भी थी;
ReplyDeleteकॉकरोच सा जीवन जीकर कहते हो क़ुर्बान किया!
बहुत सुंदर! लगता है जैसे कि मेरे अपने ही शब्द हों.
कमाल की ग़ज़ल लिखी है आपने...लफ्ज़ और एहसास दोनों बेमिसाल...किसी एक शेर की तारीफ करना दूसरे शेर के खिलाफ ना इंसाफी होगी...बहुत दिनों बाद एक अच्छी और सच्ची ग़ज़ल पढने को मिली...वाह.
ReplyDeleteनीरज
अमर जी,
ReplyDeleteदैर-ओ-हरम वालों का पेशा फ़िक्र-ए-आक़बत है तो हो;
हमने तो चूल्हे को ख़ुदा और रोटी को ईमान किया।
बहुत खूब लिखा है आपने. बधाई. अपनी एक पुरानी पंक्ति जोड़ रहा हूँ-
मजहब का नाम लेकर चलती यहाँ सियासत.
रोटी बड़ी या मजहब हमको ज़रा बताना..
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
मुश्किलों से भागने की अपनी फितरत है नहीं।
कोशिशें गर दिल से हो तो जल उठेगी खुद शमां।।
www.manoramsuman.blogspot.com