बाग़ों में प्लॉट कट गए, अमराइयाँ कहाँ!
पूरा बरस ही जेठ है, पुरवाइयाँ कहाँ!
उस डबडबाई आँख मे उतरे तो खो गए;
सारे समंदरों में वो गहराइयाँ कहाँ!
सरगम का, सुर का, राग का, चरचा न कीजिये;
‘डी जे’ की धूमधाम है; शहनाइयाँ कहाँ!
क़ुरबानियों में कौन सी शोहरत बची है अब?
और बेवफ़ाइयों में भी रुसवाइयाँ कहाँ!
कमरे से एक बार तो बाहर निकल नदीम;
तनहा दिलों की भीड़ है, तनहाइयाँ कहाँ!
उस डबडबाई आँख मे उतरे तो खो गए;
ReplyDeleteसारे समंदरों में वो गहराइयाँ कहाँ!
सुभान अल्लाह...बेहतरीन शेर...वाह..वा....
नीरज
लाज़वाब ग़ज़ल.
ReplyDeleteतन्हा दिलों की भीड़ और
तन्हाई के महीन फासले पर
अल्फाज़ इस तरह भी
नमूंदार हो सकते हैं !
वाह ! क्या बात है !.......शुक्रिया.
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डॉ.चन्द्रकुमार जैन