सुबह-सवेरे सिला बीनने जाती है रज्जो की अम्मा;
किलो-दो किलो नाज रोज़ ले आती है रज्जो की अम्मा।
उसमें से भी थोड़ा सा लाला जी की दुकान पर दे कर,
नमक, तेल, आलू, थोड़ा गुड़ लाती है रज्जो की अम्मा।
रज्जो हुई सयानी, कैसे पार लगेगी, सोच-सोच कर,
रात-रात भर जगती ही रह जाती है रज्जो की अम्मा।
अगले साल पेंशन बँधवा देंगे, कहते हैं प्रधान जी;
उनके घर भी न्यार-फूस कर आती है रज्जो की अम्मा।
रज्जो के बाबू थे, बुग्गी थी, तब कितना सुख था; अक्सर,
बीते कल की यादों में खो जाती है रज्जो की अम्मा।
Friday, August 22, 2008
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"रज्जो की अम्मा"........
ReplyDeleteachchi.....
sundar.....
सुबह-सवेरे सिला बीनने जाती है रज्जो की अम्मा;
ReplyDeleteकिलो-दो किलो नाज रोज़ ले आती है रज्जो की अम्मा।
आपने ३५ वर्ष पहले, बदायूं की याद दिला दी ! बहुत सुंदर !
सुंदर!!
ReplyDeleteज़िन्दगी को पकड़ने का यह अन्दाज़ नया रहा!
ReplyDeleteसहज प्रवाह पूर्ण भाषा और गहरे विचार लिए ये रचना बेहद खूबसूरत है...बधाई.
ReplyDeleteनीरज