अबकी बार दिवाली में जब घर आएँगे मेरे पापा
खील, मिठाई, चप्पल, सब लेकर आएँगे मेरे पापा।
दादी का टूटा चश्मा और फटा हुआ चुन्नू का जूता,
दोनों की एक साथ मरम्मत करवाएँगे मेरे पापा।
अम्मा की धोती तो अभी नई है; होली पर आई थी;
उसको तो बस बातों में ही टरकाएंगे मेरे पापा।
जिज्जी के चेहरे की छोड़ो, उसकी आंखें तक पीली हैं;
उसका भी इलाज मंतर से करवाएँगे मेरे पापा।
बड़की हुई सयानी, उसकी शादी का क्या सोच रहे हो?
दादी पूछेंगी; और उनसे कतराएंगे मेरे पापा।
बौहरे जी के अभी सात सौ रुपये देने को बाकी हैं;
अम्मा याद दिलाएगी और हकलाएंगे मेरे पापा।
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मँहगाई ऐसी ही कविता रचवायेगी..बहुत बढ़िया.
ReplyDeleteमेरे पापा-
ReplyDeleteदादी का टूटा चश्मा और फटा हुआ चुन्नू का जूता,
दोनों की एक साथ मरम्मत करवाएँगे मेरे पापा।
सुंदरतम रचना। सरल शब्दों में अनूठा वर्णन।
अमर जी ! आप के ब्लौग पर आ कर अच्छा लगा । ईकविता में आप को पढ कर आनन्द आता ही है लेकिन ब्लौग का अपना अलग मज़ा है ।
ReplyDeleteखूबसूरत गज़ल है ।
क्या कहूँ, यह ग़ज़ल तो अब तक कहीं पढ़ी गयी ग़ज़लों से कई फ़ासले पर है!
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