Wednesday, August 13, 2008

कभी हिंदुत्व

कभी हिंदुत्व पर संकट, कभी इस्लाम ख़तरे में;
ये लगता है कि जैसे हैं सभी अक़वाम ख़तरे में।

उधर फ़तवा कि खेले सानिया सलवार में टेनिस;
ज़मीनों के लिये हैं, इस तरफ़ श्री राम ख़तरे मे।

दहाड़े रात भर माइक पे, देवी-जागरण वाले;
मुहल्ले भर के गोया नींद और आराम ख़तरे में।

ये 'ग्लोबल कारपोरेटों' का हमला है,पड़ेगा ही-
मुहब्बत का, वफ़ा का, दोस्ती का नाम ख़तरे में।

पुजेंगे गोडसे और गोलवरकर, फिर तो आयेगा
कबीर ओ गौतम ओ नानक का हर पैग़ाम खतरे में।

1 comment:

  1. कभी हिंदुत्व पर संकट, कभी इस्लाम ख़तरे में;
    ये लगता है कि जैसे हैं सभी अक़वाम ख़तरे में।

    वाकई में भाई ! लगता है जैसे हम लोगों ने धर्म बचाओ अभियान छेड़ रखा है ! लगता है खाना पीने की चिंता छोड़ कर पहले धर्म बचाओ !

    ReplyDelete