Thursday, May 13, 2010

हों ॠचायें

हों  ॠचायें वेद की  या आयतें  क़ुरआन  की
खो गई इन जंगलों में अस्मिता इन्सान की

कैसी  तनहाई!  मेरे घर  महफ़िलें  सजती  हैं रोज़
सूर, तुलसी, मीर,ग़ालिब, जायसी, रसखान की

कितने होटल, मॉल,मल्टीप्लेक्स उग आये यहां
कल तलक हंसती थीं इन खेतों में फ़सलें धान की

इस कठिन बनवास में मीलों भटकना है अभी
तुम कहां तक साथ दोगी; लौट जाओ  जानकी

तुम भी कैसे बावले हो; अब तो कुछ समझो नदीम
अजनबी आँखों में मत खोजो चमक पहचान की