Tuesday, January 27, 2009

मज़हबी संकीर्णताओं

मज़हबी संकीर्णताओं, वर्जनाओं के बगै़र;
हम जिये सारे ख़ुदाओं, देवताओं के बगै़र।

राह में पत्थर भी थे, कांटे भी थे, पर तेरे साथ,
कट गया अपना सफ़र भी कहकशाओं के बग़ैर।

मुफ़लिसी में खुल गया हर एक रिश्ते का भरम
उम्र काटी  है  बुज़ुर्गों की दुआओं के बग़ैर।

कुछ तो अपना हौसला था, और कुछ मजबूरियां;
पार कर आए समन्दर नाख़ुदाओं के बग़ैर।

मत भरोसा बादबानी क़श्तियों का कर नदीम;
ये कहीं ले जा न पाएंगी हवाओं के बग़ैर।

Thursday, January 22, 2009

बाग़बां

बाग़बां बन के सय्याद आने लगे;
बुलबुलों को मुहाजिर बताने लगे।

भाईचारा! मुहब्बत! अमन! दोस्ती!
भेड़ियों के ये पैग़ाम आने लगे।


आपसे तो तक़ल्लुफ़ का रिश्ता न था;
आप भी दुनियादारी निभाने लगे!

दर्द वो क्या जो गुमसुम सा बैठा रहे!
दर्द तो वो है जो गुनगुनाने लगे।

एक लमहा था; आया,गुज़र भी गया;
पर उसे भूलने में ज़माने लगे।

Saturday, January 10, 2009

हमने पूछा

हमने पूछा ज़िंदगी की रहगुज़ारों का पता;
आपने हमको बताया चाँद-तारों का पता।

मुद्दतों पहले गिरा था आँधियों में इक शजर,
खोजती है आज तक बुलबुल बहारों का पता।

जिनके हाथों का हुनर ताज-ओ-पिरामिड में ढला,
क्या किसी को याद है उनके मज़ारों का पता?

धूप के छोटे से टुकड़े की ज़रूरत है उसे;
पूछता फिरता है सूरज अन्धकारों का पता।

नाख़ुदाओं के भरोसे डूबना तय था नदीम;
हमने तूफ़ानों में पाया है किनारों का पता।