Thursday, November 27, 2008

तेरी ज़िद

तेरी ज़िद, घर-बार निहारूं;
मन बोले संसार निहारूं।

पानी, धूप, अनाज जुटा लूं;
फिर तेरा सिंगार निहारूं।

दाल खदकती, सिकती रोटी,
इनमें ही करतार निहारूं।

बचपन की निर्दोष हँसी को ,
एक नहीं , सौ बार निहारूं।

तेज़ धार औ भंवर न देखूं,
मैं नदिया के पार निहारूं.

Monday, November 24, 2008

सपनों का

सपनों का अब निगाह से मंज़र समेटिये,
सूरज की आँख खुल गई, बिस्तर समेटिये

दे दीजियेगा बाद में औरों को मशविरा;
फ़िलहाल अपना गिरता हुआ घर समेटिये

फूलों की बात समझें, कहाँ हैं वो देवता?
ये दानवों का दौर है; पत्थर समेटिये

जब से गए हैं आप, बिखर सा गया हूँ मैं,
खो जाउंगा हवाओं में, आकर समेटिये

कुछ आँधियों ने कर दिया जिसको तितर-बितर,
उठिए 'नदीम' साब! वो लश्कर समेटिये.

Wednesday, November 12, 2008

धूल को चंदन

धूल को चंदन, ज़मीं को आसमाँ कैसे लिखें?
मरघटों में ज़िंदगी की दास्तां कैसे लिखें?


खेत में बचपन से खुरपी फावड़े से खेलती,
उँगलियों से खू़न छलके, मेंहदियां कैसे लिखें?


हर गली से आ रही हो जब धमाकों की सदा,
बाँसुरी कैसे लिखें; शहनाइयां कैसे लिखें?

कुछ मेहरबानों के हाथों कल ये बस्ती जल गई;
इस धुएँ को घर के चूल्हे का धुआँ कैसे लिखें?

दूर तक काँटे ही काँटे, फल नहीं, साया नहीं।
इन बबूलों को भला अमराइयां कैसे लिखें

रहज़नों से तेरी हमदर्दी का चरचा आम है;
मीर जाफर! तुझको मीर-ऐ-कारवाँ कैसे लिखें?

Monday, November 10, 2008

सरदी में

सरदी में गुनगुनी धूप सी, ममता भरी रजाई अम्मा,
जीवन की हर शीत-लहर में बार-बार याद आई अम्मा।

भैय्या से खटपट, अब्बू की डाँट-डपट, जिज्जी से झंझट,
दिन भर की हर टूट-फूट की करती थी भरपाई अम्मा।

कभी शाम को ट्यूशन पढ़ कर घर आने में देर हुई तो,
चौके से देहरी तक कैसी फिरती थी बौराई अम्मा।

भूला नहीं मोमजामे का रेनकोट हाथों से सिलना;
और सर्दियों में स्वेटर पर बिल्ली की बुनवाई अम्मा।

बासी रोटी सेंक-चुपड़ कर उसे पराठा कर देती थी,
कैसे थे अभाव और क्या-क्या करती थी चतुराई अम्मा।
(आलोक श्रीवास्तव की ज़मीन और बिटिया स्तुति की
ज़िद पर)

Saturday, November 1, 2008

जर्जर सा तन

जर्जर सा तन,
थका-थका मन।

दुःख तो सहचर;
सुख से अनबन।

बरस न पाये;
घुमड़े सावन ।

सबके मन में
कोई उलझन।

कौन सुनेगा
किसका क्रंदन?

हँसते अधर;
बिलखता सा मन।

ऐसा जीवन
भी क्या जीवन!