Thursday, July 31, 2008

घने बनों में

घने बनों में शहर का पता कहीं न मिला;
भरी थी नाव, मगर नाख़ुदा कहीं न मिला।

लिखी थी किसने ये उलझी सी ज़िन्दगी की ग़ज़ल!
कोई रदीफ़, कोई काफ़िया कहीं न मिला।

महँत बैठे थे काबिज़ सभी शिवालों में;
बहुत पुकारा मगर देवता कहीं न मिला।

सुना तो था कि इसी राह से वो गुज़रे थे,
तलाश करते रहे; नक्श-ए-पा कहीं न मिला।

सफ़र हयात का तनहा ही काट आये नदीम;
लगे जो अपना सा वो काफ़िला कहीं न मिला।

Tuesday, July 29, 2008

मानिये मत

मानिये मत यूं धुएं से हार बंधु;
देखिये! है रौशनी उस पार बंधु।

रक्त का झरना बहा सर से तो क्या,
ज़ुल्म की भी हिल चली दीवार बंधु।

सुख की घड़ियां उंगलियों पर गिन चुके,
कैसे नापें दुख का पारावार बंधु।

तुम तो हो शम्बूक ख़ुद ही सोच लो,
तुमको क्या देगा कोई अवतार बंधु।

मेरे स्वप्नों पर हँसो मत; देखना,
स्वप्न ये होंगे सभी साकार बंधु।





यही आँख थी

यही आँख थी के जनम-जनम से जो भीगने को तरस गई;
इसी ख़ुश्क आँख की रेत से ये घटा कहाँ से बरस गई!

ये थी किसकी याद जो टूट कर मेरी ज़िन्दगी पे बिखर गई!
मेरे दिल की ज़र्द सी दूब भी जो कदम-कदम पे सरस गई।

मेरी तश्नगी भी कमाल थी; जहां एक बूंद मुहाल थी;
बही किस दिशा से ये नम हवा, मेरी तश्नगी भी झुलस गई!

वो ग़ज़ल जो एक क़लाम थी, जो किसी को मेरा सलाम थी,
मेरे दिल के दश्त को छोड़ कर जाने कौन देस में बस गई!

वो तेरा ख़ुलूस थी, प्यार थी, तेरी रहमतों की फुहार थी;
मेरे प्यासे खेतों को छोड़ कर, जो समंदरों पे बरस गई।

कभी धूप थी,कभी रात थी, ये हयात कैसी हयात थी!
कभी फूल बन के महक गई, कभी ज़हर बन के जो डस गई।

दर-ओ-दरीचा

दर-ओ-दरीचा-ओ-दीवार-ओ-सायबान था वो;
जहां ये उम्र कटी ,घर नहीं मकान था वो।

किये थे उसने इशारे,मगर न समझा दिल,
कि मैं ज़मीन से कमतर था; आसमान था वो।

थे उसके साथ ज़माने के मीडिया वाले,
मेरा गवाह फक़त सच; सो बेज़ुबान था वो।

वो खो गया तो मेरी बात कौन समझेगा?
उसे तलाश करो- मेरा हमज़बान था वो।


जो ज़िंदगी के हर इक इम्तिहां में फ़ेल हुआ 
सही तो ये है ज़माने का इम्तिहान  था   वो 

Sunday, July 27, 2008

दवा-ए-दर्द-ए-दिल

दवा-ए-दर्द-ए-दिल के नाम पर अब ये भी कर जायें;
किसी के दुख में शामिल हों,किसी मुफ़लिस के घर जायें।

ये शेख़-ओ-बिरहमन का दौर है; इसमें यही होगा
कि मस्जिद और शिवालों की वजह से घर बिखर जायें।

रहे हम अपनी हद में सब्र से ,तो क्या हुआ हासिल?
चलो अब ये भी कर देखें; चलो हद से गुज़र जायें।

ये शंकर के मुरीदों की कतारें काँवरों वाली,
कभी रोज़ी की ख़ातिर भी तो सड़कों पर उतर जायें।

इधर मंदिर, उधर मस्जिद; इधर ज़िन्दाँ उधर सूली,
ख़िरदमंदों की बस्ती में जुनूँ वाले किधर जायें ।

यूं तो

यूं तो इस देश मे भगवान बहुत हैं साहब।
फिर भी सब लोग परेशान बहुत हैं साहब॥

कर्ज़माफ़ी के इनामों से इमरजेन्सी तक,
होठ सी देने के सामान बहुत हैं साहब।

वो भी सूली लिये फिरते हैं मगर हम सब की,
ईसा के भेस में शैतान बहुत हैं साहब।

ऐसी ग़ज़लों का प्रकाशन तो बहुत मुश्किल है;
आरती लिखिये, क़दरदान बहुत हैं साहब।

जल्द ही होंगे इलेक्शन मेरा दिल कहता है;
हाकिम-ए-वक़्त मेहरबान बहुत हैं साहब ।

धुंध और कोहरे

धुंध और कोहरे का मौसम देखिये जाने लगा।
झर गया पतझर,नय मधुमास मुस्काने लगा।

राह भी आगे की काफी साफ अब दिखने लगी;
रौशनी सूरज पुन: अविराम बरसाने लगा।

थी ख़बर नोकीले करवाये हैं सब हिरनों ने सींग;
भेड़िया मंदिर में जा पहुंचा-भजन गाने लगा॥

घर के अंदर व्यक्तिगत दुख था हिमालय से बड़ा;
घर से निकले तो वही राई नज़र आने लगा॥

जेठ की तपती दुपहरों ने किया विद्रोह तो
एयरकण्डीशण्ड कमरों मे धुआं जाने लगा॥

ज़िन्दगी दर्द की

ज़िन्दगी दर्द की तस्वीर रहेगी कब तक;
हमसे रूठी हुई तक़दीर रहेगी कब तक ।

रंग तो लायेंगी मज़लूम की आहें आख़िर;
ज़ुल्म के हाथ में शमशीर रहेगी कब तक।

दार पर चढ़ के भी मक़तूल यही कहता रहा-
बेअसर ख़ून की तासीर रहेगी कब तक।

चोट इक और,फिर इक और,फिर इक और ऐ दोस्त!
ये तेरे पांव की ज़ंजीर रहेगी कब तक!

दौर आयेगा बग़ावत का तो बंदापरवर!
मुल्क में आपकी जागीर रहेगी कब तक!

राम के मंदिर

राम के मंदिर से सारे पाप कट जायेंगे क्या!
बन गया मन्दिर तो चकले बंद हो जायेंगे क्या!!

कितने लव-कुश धो रहे हैं आज भी प्लेट-ओ-गिलास;
दूध थोड़ा, कुछ खिलौने-उनको मिल पायेंगे क्या!

चीमटा,छापा,तिलक,तिरशूल,गांजे की चिलम-
रहनुमा-ए-मुल्क अब इस भेस में आयेंगे क्या!

रख सकेंगे क्या अंगूठे को बचा कर एकलव्य;
रामजी के राज में शंबूक जी पायेंगे क्या!

अस्पतालों,और सड़कों, और नहरों के लिये,
बोलिये तो कारसेवा आप करवायेंगे क्या!

पानी

किसी के लॉन मे रुक कर सरस गया पानी;
किसी के प्यासे लबों को तरस गया पानी।

पुकारते रहे मीलों तलक,पता न मिला;
न जाने कौन सी बस्ती में बस गया पानी!

फ़सल की प्यास के मौके पे हो गया रूपोश;
फ़सल पकी तो अचानक बरस गया पानी।

वो और होंगे मिला जिनको हो के आब-ए-हयात,
हमें तो नाग की मानिंद डस गया पानी।

सिवाय चश्म-ए-ग़रीबां कहीं नमी न रही;
जला उमीद का जंगल,झुलस गया पानी।

घात प्रतिघात में

घात प्रतिघात में रहो प्यारे;
हर खुराफ़ात में रहो प्यारे।

बात जो हो कभी न कहने की,
बात ही बात में कहो प्यारे।

कह दिया दूसरों से- ‘पहले आप’।
यूं न जज़बात में बहो प्यारे।

अपनी छतरी थमा दी औरों को;
क्यूं न बरसात में रहो प्यारे।

रोटियाँ! वो भी मान-आदर से!
अपनी औक़ात में रहो प्यारे।

Saturday, July 26, 2008

लीजिये अंततः सफल

लीजिये अंततः सफल सबके प्रयास हो गये;
आपसे दूर होके हम विश्व के पास हो गये।

उनको सुनाई जब कभी हमने ह्रदय की वेदना,
उनके भी नयन बह चले;हम भी उदास हो गये।

वो भी समय था हास के जब हम अगाध स्रोत थे;
ये भी समय है लुप्त जब सारे ही हास हो गये।

कैसी पवन विचित्र यह उपवन में देखिये चली,
सारे सुगंधिमय सुमन दाहक पलास हो गये।

आपका नाम जब कभी कर्ण कुहर में पड़ गया
बुझी सी द्रष्टि में कई विद्युत विकास हो गये॥




बस में बैठे

बस में बैठे बैठे आंखें भर आना
भूला नहीं छोड़ कर गांव शहर जाना

कभी समन्दर की तूफ़ानों की बातें;
और कभी हल्की रिमझिम से डर जाना

बाग़ कट चुके,खेतों में सड़कें दौड़ीं;
कैसा गाँव कहां छुट्टी में घर जाना

किसने लिख दी जीवन की ये परिभाषा!
ज़िन्दा रहने की कोशिश में मर जाना

कैसा कठिन सफ़र होता है,पूछो मत,
शाम ढले बेरोज़गार का घर जाना

Thursday, July 24, 2008

मुर्गा

चावल की किनकी,
बाजरे के दाने,
ठंडा पानी;
और चारो तरफ
दड़बे की जालीदार दीवारें-
जिनके पीछे से
सारा संसार बंदी लगता है।
(हां! आकाश में उड़ता बाज भी)
न सियार का भय है,
न बिल्ली का।
मुर्गी भी साथ है।

हां!
कभी-कभी दहशत सी तो होती है-
जब कोई हाथ
(पता नहीं किसका)
अचानक
एक या कुछ को,
उठा ले जाता है-
न जाने कहां!

और फिर मिलते हैं
कुछ ही पल बाद,
ज़ायका बदलने को,
ताज़ा गोश्त के कुछ छिछड़े!

(जिनसे लिपटे लहू की गंध 
कुछ पहचानी सी लगती है)

नहीं जानता-
किसका है ये हाथ।
(जान कर करना भी क्या है?)
बस इतना पता है-
कि यही हाथ देता है
किनकी,बाजरा,पानी;
और स्वादिष्ट छिछड़े।

तभी तो!
ये हाथ
जब भी पिंजड़े में आया-
मैनें
इस पर न चोंच मारी,
न पंजे।
बस!
दड़बे के किसी कोने में
दुबक गया।

भोर

छटपटा रही है,
प्रसवासन्न चेतना।
पीड़ा के पल,
प्रतीक्षा के पल,
कितने लम्बे हैं?

पर अँधेरा छंटने लगा है।
कुछ साये
जमा हो रहे हैं
धुँधलके में।

उनके कन्धों पर
हल है या हथौड़ा;
गारे का तसला है,
या साहब का सूट्केस!
साफ़-साफ़ कुछ नहीं दिखता।

ये घुटन,ये उमस,
ये बेचैनी
क्यों है?

क्षितिज पर
ये बादल हैं,
या खादी के परदे!
जिन्होंने रोक रखा है रास्ता
गुनगुनी धूप का।

ये कसमसाहट कैसी है?
कैसा है ये असमंजस?

एक पल मन करता है
भरकी रजाई में
फिर से सो जाने को।
तो दूसरे ही पल
मचलता है
नहाने को
रोशनी के झरने में।

उठो भी!
परदे हटा दो।
खिड़कियां ही नहीं
दरवाज़े भी खोलो।
बाहर तो निकलो!

ओस भीगी दूब,
खिलखिलाते फूल,
बुलबुल के गीत,
और ताज़ा हवा-
सब तुम्हें बुलाते हैं।

जब वो दूर

जब वो दूर चला जाता है;
सचमुच बहुत याद आता है।

इसका कोई नाम नहीं है;
जाने ये कैसा नाता है?

बादल पकी हुई फ़सलों पर,
ओले क्यों बरसा जाता है?

नफ़रत की आदत है मन को;
प्यार मिले- घबरा जाता है।

कैसा पागल रिक्शे वाला;
रिक्शे पर ही सो जाता है!

Tuesday, July 22, 2008

टूटे यूं संबंध सत्य से

टूटे यूं संबंध सत्य से सभी झूठ स्वीकार हो गये।
ठोकर खाते-खाते आख़िर हम भी दुनियादार हो गये॥

बचपन से सुनते आये थे
सच को आंच नहीं आती है।
पर अब देखा-सच बोलें तो,
दुनिया दुश्मन हो जाती है॥

सत्यम वद, धर्मम चर के उपदेश सभी बेकार हो गये।
ठोकर खाते-खाते………….

खण्डित हुई सभी प्रतिमाएं;
अब तक जिन्हें पूजते आए।
जिस हमाम में सब नंगे हों,
कौन भला किससे शरमाए?

बेचा सिर्फ़ ज़मीर और सुख-स्वप्न सभी साकार हो गये।
ठोकर खाते-खाते…………….

गिद्धों के गिरोह में जबसे
हमने अपना नाम लिखाया।
लोग मरे दुर्भिक्षों में पर,
हमने सदा पेट भर खाया॥

कितने दिन नाक़ारा रहते;हम भी इज़्ज़तदार हो गये।
ठोकर खाते-खाते…………….

वो मेरे बच्चों को

वो मेरे बच्चों को स्कूल ले के जाता था।
और उसका बेटा वहीं खोमचा लगाता था॥

जो सबको  धूप से, बरसात से बचाता था ।
खुद उसके सर पे फ़क़त आसमाँ का छाता था।

भटक गया हूं जहां मैं – कभी उसी वन से,
सुना तो है कि कोई रास्ता भी जाता था॥

सियाह रात थी, और आँधियाँ भी थीं; लेकिन
उन्हीं हवाओं में एक दीप टिमटिमाता था ॥

उसे पड़ोसी बहुत नापसन्द करते थे।
वो रात में भी उजालों के गीत गाता था॥

इक नई दास्तां

इक नई दास्ताँ सुनानी है.
आप सुन लें तो मेहरबानी है॥

हमको तक़दीर से तो कुछ न मिला
अब तो तदबीर आज़मानी है।

उफ़ ये हालात! कौन कहता है
प्रोमथियस की कथा पुरानी है?

ज़िन्दगी बा सुकून ओ बा ईमान
आंधियों में शमा जलानी है।

कौन बाँटे यहां किसी का दर्द?
सबकी आँखों में आज पानी है।

ज़िन्दगी की किताब मुश्किल है।
किसने समझी है;किसने जानी है?

हर अक़ीदा फ़िज़ूल बात; मगर-
बात तो बात है- निभानी है॥

Monday, July 21, 2008

मुक्तक

(1)
मानिये मत यूँ धुएं से हार बंधु ;
देखिये है रोशनी उस पार बंधु।
रक्त का झरना बहा सर से तो क्या,
ज़ुल्म की भी हिल चली दीवार बंधु॥
(2)
रवाँ हों अश्क लबों पर हँसी नज़र आये;
चिता की लौ में नई ज़िन्दगी नज़र आये।
क़दम क़दम पे फ़रिश्तों की भीड़ मिलती है;
कभी कहीं तो कोई आदमी नज़र आये॥
(3)
बुझा दे प्यास समन्दर में वो लहर तो नहीं;
ये कँकरीट का जंगल कोई शहर तो नहीं।
जिन्हें है दिन के उजालों से इश्क, उनके लिये,
शब-ए-विसाल भी शब ही तो है,सहर तो नहीं॥

Sunday, July 20, 2008

अगस्त 91

हमने यह सपना देखा था-

मानसरोवर की सीमाएं,
बढ़ते-बढ़ते कभी किसी दिन,
इस दलदल को भी छू लेंगी;
और हमारा यह दलदल भी,
मानसरोवर बन जाएगा।
जहाँ मुक्ति का कमल
खिलेगा निर्मल जल में।

मख्खी,मच्छर,जोंक –
तिरोहित हो जाएँगे;
सारे हँस चुगेंगे मोती;
सारी धरती-
उनका अभयारण्य बनेगी।

किन्तु हमारे
उस सपने का
यह कैसा परिणाम हुआ है!

दलदल की सीमाएं
मानसरोवर को ही
निगल गई हैं।
मख्खी,मच्छर,जोंक-
मुदित हैं, निष्कण्टक हैं।

लेकर तीर कमान
अहेरी घूम रहे हैं।
करना है आखेट
उन्हें सारे हंसों का;
तब ही तो अभिषेक
गिद्ध का कर पायेंगे ।

और स्वप्नदर्शी हम जैसे
जाने कितने!
भग्नह्रदय!स्तब्ध!
सभी कुछ देख रहे हैं।

मन में है संताप;
भावनायें आहत हैं।

तो क्या
वे सारे सपने
म्रृगमरीचिका थे?
क्या
यह दुर्गन्धित दलदल
ही परम सत्य है?
मन करता है
प्रश्न।

बुद्धि उत्तर देती है-
नहीं! नहीं!
यह बात नहीं है;
बात और है-

मानसरोवर की रक्षा
में चूक हुई है।
हँस चले थे
गिद्धों का आलिंगन करने;
फिर तो जो कुछ हुआ
सहज स्वाभाविक ही था।
परजीवी बगुले
जब हँसों की कतार में
घुस आये-
तो मानसरोवर लुटना ही था।
सच तो यह है-
सीमाओं के मिलने भर से
दलदल शुद्ध नहीं होते हैं;
उलटे मानसरोवर
दूषित हो जाते हैं।
बनी रहे अनवरत चौकसी,
होते रहें प्रयास निरन्तर;
तभी सुनिश्चित होगी
उनकी सतत सुरक्षा।

सच तो यह है-
हर दलदल के
निवासियों की-
अपनी पीड़ाएं होती हैं।
अपने ही सुख-दुख होते हैं;
अपनी क्रीड़ाएं होती हैं।
अपने परजीवी होते हैं;
अपनी सीमाएं होती हैं।

इन तथ्यों के सागर-मंथन
से ही वह अमृत मिलता है-
जो दलदल को मानसरोवर
कर देता है।–

मानसरोवर-
जिसमें
मुक्ति-कमल खिलता है।

राजा लिख

राजा लिख और रानी लिख।
फिर से वही कहानी लिख॥

बैठ किनांरे लहरें गिन।
दरिया को तूफ़ानी लिख॥

गोलीबारी में रस घोल।
रिमझिम बरसा पानी लिख॥

राम-राज के गीत सुना।
हिटलर की क़ुरबानी लिख॥

राजा को नंगा मत बोल।
परजा ही बौरानी लिख॥

फ़िरदौसी के रस्ते चल।
मत कबीर की बानी लिख॥

Saturday, July 19, 2008

कोई साँसों में

कोई साँसों में मेरी कँवल बो गया।
और फिर जा के जाने कहाँ खो गया।

एक बच्चा मुझे देख कर हँस दिया;
आज का मेरा दिन तो ग़ज़ल हो गया।

दिल को मालूम था तुम चले जाओगे
चन्द लमहों को फिर भी बहल तो गया।

उसके गिरने का चर्चा सभी ने किया
ये न देखा कि गिर के सँभल तो गया।

आबले पाँव के हमकदम हो गये;
ज़िन्दगी का सफ़र कुछ सहल हो गया।

जिस्म और जान

जिस्म और जान बिक चुके होंगे।
दीन ओ ईमान बिक चुके होंगे।

इन दिनों मण्डियों में रौनक है;
खेत खलिहान बिक चुके होंगे।

मन्दिरों मस्जिदों के सौदे में
राम ओ रहमान बिक चुके होंगे।

कँस बेख़ौफ़ घूमता है अब ,
क्रष्ण भगवान बिक चुके होंगे।

ताजिरों का निज़ाम है; इसमें
सारे इन्सान बिक चुके होंगे।

Friday, July 18, 2008

बेवतन फ़कीरों से

बेवतन फ़कीरों से पूछना ठिकाना क्या?
इनको तो भटकना है, इनसे दोस्ताना क्या?


दर्द कह के क्या कीजे, दर्द सबकी दौलत है;
दर्द सब समझते हैं दर्द का सुनाना क्या?

ख़ामशी के सहरा में गुफ़्तगू पे पहरे हैं;
फिर सवाल क्या करना,पूछना बताना क्या?

दर्द तो मुसलसल है, इसमें कब तलक रोएं!
हर ख़ुशी को जाना है, इसमें मुस्कराना क्या?

तुम तो जानते थे सब;तुमसे कह के क्या करते!
ग़ैर ग़ैर ही तो था; ग़ैर को बताना क्या?

दूर का मसला

दूर का मसला घरों तक आ रहा है
बाढ़ का पानी सरों तक आ रहा है।

आग माना दूर है, लेकिन धुआं तो,
इन सुहाने मंज़रों तक आ रहा है।

लद चुके दिन चूड़ियों के,मेंहदियों के;
फावड़ा कोमल करों तक आ रहा है।

मंदिरों से हट के अब मुद्दा बहस का
जीविका के अवसरों तक आ रहा है।

इसने कुछ इतिहास से सीखा नहीं है;
एक प्यासा सागरों तक आ रहा है।

Thursday, July 17, 2008

उसने कभी भी



उसने कभी भी पीर पराई सुनी नहीं .
कितना भला किया कि बुराई सुनी नहीं.

रोटी के जमा-ख़र्च में ही उम्र कट गई,
हमने कभी ग़ज़ल या रुबाई सुनी नहीं .

औरों की तरह तुमने भी इलज़ाम ही दिये;
तुमने भी मेरी कोई सफाई सुनी नहीं.

बच्चों की नर्सरी के खिलौने तो सुन लिए;
ढाबे में बर्तनों की धुलाई सुनी नहीं.

मावस की घनी रात का हर झूठ रट लिया;
सूरज की तरह साफ सचाई सुनी नहीं.

शरीक तेरे

शरीक तेरे हर इक ग़म हर इक खुशी में रहा।
मैं तुझसे दूर मगर तेरी ज़िन्दगी में रहा।

जो दर्द आंख से ढल कर रुका लबों के करीब,
तमाम उम्र वो शामिल मेरी हँसी में रहा।

समन्दरों में मेरी तशनगी को क्या मिलता?
मैं अब्र बन के पलट आया फिर नदी में रहा।

वो जिनकी नज़र-ऐ-इनायत पे लोग नाज़ां थे,
बहुत सुकून मुझे उनकी बेरुखी़ में रहा।

वो मेरा साया अंधेरों में गुम हुआ है तो हो;
यही बहुत है मेरे साथ रोशनी में रहा.

चिड़िया के बच्चे

चिड़िया के बच्चों ने पर तौले ;
और उड़ चले।
नन्हें-नन्हें फड़्फड़ाते पर
कोमल और सुकुमार.

कुछ तेज़ी से उड़े;
आगे निकले;और बनाया
एक नया नीड़;
फिर से लिखने को-
वही पुरातन चिर कथा.

कुछ के पंख
इतने सशक्त न थे.
आंधी-वर्षा से जूझते
वे जा गिरे धरती पर-
और ग्रास बने –
व्यालों बिलावों के.

कुछ करते रहे जतन ,
नीड़ के निर्माण का.
रहे खोजते कोई सशक्त डाल
छाया और आश्रय को.
कुछ को मिली;
कुछ को नहीं मिली.

सबका था अपना-अपना
जीवन-समर;
अपने-अपने नीड़,
अपनी-अपनी डाल;
अपने-अपने व्याल.

पर एक तथ्य
उन सबकी गाथा में साझा था.
उनमें से कोई भी
पुराने नीड़ पर नहीं लौटा.

Wednesday, July 16, 2008

प्यार का वास्ता रहा होगा.

प्यार का वास्ता रहा होगा।
कोई अहद-ऐ-वफ़ा रहा होगा।

आबला जो पड़ा तेरे दिल पर
दोस्ती का सिला रहा होगा।

किसने राजा को कह दिया नंगा!
कौन वो सरफिरा रहा होगा!

वो ठहाके बहुत लगाता था,

दर्द दिल में छुपा रहा होगा।

हम कहाँ! और उनकी बज्म कहाँ!
वो कोई दूसरा रहा होगा.

Tuesday, July 15, 2008

कुछ इस अदा से

कुछ इस अदा से उम्र का सावन गुज़र गया
दलदल बचा है , बाढ़ का पानी उतर गया।

सदियाँ उजाड़ने में तो दो पल नहीं लगे;
लम्हे संवारने में ज़माना गुज़र गया।

बुलबुल तो वन को छोड़ के बागों में जा बसी;
इक जंगली गुलाब था , मुरझा के झर गया.

कमरे में आसमान के तारे समा गए ;
अच्छा हुआ के टूट के शीशा बिखर गया।

घर से सुबह तो निकला था अपनी तलाश में,
लौटा जो शाम को तो भला किसके घर गया?

Monday, July 14, 2008

ज़िन्दगी

ज़िन्दगी दर्द के, उलझन के सिवा कुछ भी नहीं;
साँस की डोर भी बंधन के सिवा कुछ भी नहीं।

जिस ह्रदय पर था हमें गर्व कभी अब वह भी
एक टूटे हुए दरपन के सिवा कुछ भी नहीं.

हाँ! कभी स्नेह की अविराम बही थी धारा;
किंतु अब नित नई अनबन के सिवा कुछ भी नहीं.

स्वप्न पलते थे कभी जिनमें, उन्हीं नयनों में,
अब घुमड़ते हुए सावन के सिवा कुछ भी नहीं.

अनवरत गीत झरा करते थे जिनसे पहले,

आज उन अधरों पे क्रंदन के सिवा कुछ भी नहीं.

कोई पूछे मेरा परिचय तो यही कह देना,
एक अभिशप्त, अकिंचन के सिवा कुछ भी नहीं.

Sunday, July 13, 2008

गीत कुछ उल्लास के

गीत कुछ उल्लास के मन बावरा गाता तो है ;
पर उसी पल कंठ भी स्वयमेव भर आता तो है।

छोड़ कर जिस विश्व को मैं भाग आया हूँ यहाँ
आज भी उस विश्व से मेरा कोई नाता तो है ।

ये घुटन, ये उलझनें, ये वंचना, ये वेदना;

इन सभी के बीच मन निर्दोष घबराता तो है ।

क्या न जाने भेद है जो प्यास यह बुझती नहीं;

नित्य प्रति ही नीर नयनों से बरस जाता तो है।

मानता हूँ अंश हूँ मैं भी व्यवस्था का ; मगर
इस व्यवस्था से ह्रदय विद्रोह कर जाता तो है।

शब्द में अनुवाद मेरी भावना का हो, न हो;
मौन भी मेरा ह्रदय के भेद कह जाता तो है ।

जिस दिशा में लक्ष्य या गंतव्य की सीमा नहीं
उस दिशा की और यह उन्माद ले जाता तो है।

उलझनों की झाडियाँ हैं; मुश्किलों के हैं पहाड़,
फ़िर भी इनके बीच से एक रास्ता जाता तो है।

हास में, परिहास में, आनंद में , उल्लास में,
सम्मिलित हूँ, किंतु फ़िर भी प्राण अकुलाता तो है।

Saturday, July 12, 2008

जब से इंसान

जब से इंसान हो गए यारो
हम परेशान हो गए यारो।

बेडी़ पावों की,तौक़ गर्दन का,
दीन-ओ-ईमान हो गए यारो।

कैस कुछ कह उठा तो अहले खि़रद,

कितने हैरान हो गए यारो।

अब अवध में नहीं कोई शम्बूक,
सारे कुर्बान हो गए यारो।

कोई सुनता नहीं किसी की पुकार,
लोग भगवान हो गए यारो।

Friday, July 11, 2008

दर्द हद से

दर्द हद से गुज़र गया आख़िर
सैल दुःख का उतर गया आख़िर.

जिसकी ज़िन्दादिली का चर्चा था
थक के वो शख़्स मर गया आख़िर.

आपकी बज़्म से दिल-ऐ-मासूम
हो के मायूस घर गया आख़िर.

जंगली झाड़ियों में सुर्ख गुलाब
यूं ही गुमनाम झर गया आख़िर.

ख़ुद को वो आफ़ताब कहता था!

कुछ शरारों से डर गया आख़िर।

Tuesday, July 8, 2008

जब भी चाहा

जब भी चाहा तुमसे थोड़ी प्यार की बातें करूं

पास बैठूं दो घड़ी,श्रृंगार की बातें करूं।



वेदना चिरसंगिनी हठपूर्वक कहने लगी

आंसुओं की,आंसुओं की धार की बातें करूं।



देखता हूँ रुख ज़माने का तो ये कहता है मन

भूल कर आदर्श को व्यवहार की बातें करूं।



आप कहते हैं प्रगति के गीत गाओ गीतकार;

सत्य कहता है दुखी संसार की बातें करूं।



चाटुकारों के नगर में सत्य पर प्रतिबन्ध है।

किस लिए अभिव्यक्ति के अधिकार की बातें करूं।



इस किनारे प्यास है; और उस किनारे है जलन

क्यों न फिर तूफ़ान की मंझधार की बातें करूं.

Friday, July 4, 2008

चूक हो जाए

चूक हो जाए न शिष्टाचार में
दुम दबा कर जाइए दरबार में

कुर्सियों के कद गगनचुम्बी हुए
आदमी बौना हुआ आकार में 

छोड़ जर्जर नाव सीखा तैरना;
वरना हम भी डूबते मंझधार में

रोग ही बेहतर था सब कहने लगे,

हो गई ऎसी दशा उपचार में

भूमिका में ख़ूब था जोश-ओ-खरोश,
पड़ गए कमज़ोर उपसंहार में 

Thursday, July 3, 2008

क्या सफर था!

क्या सफर था! राह-ओ-मंजिल का निशाँ कोई न था
काफिला कोई न था; और कारवाँ कोई न था.

हमने ही अपने तसव्वुर से तुझे इक शक्ल दी.
हम न थे तो तू; तेरा नाम-ओ-निशाँ कोई न था.

कैसा जंगल था जहाँ वनवास पर भेजे गए
हर तरफ़ अशजार थे, साया वहाँ कोई न था.

दिल के दरवाज़े पे दस्तक बारहा होती रही
हमसे मिलने को मगर आया वहाँ कोई न था.

आईनों के शहर में हर सिम्त हम थे;सिर्फ़ हम.
हम चले आए तो हम जैसा वहाँ कोई न था.

Wednesday, July 2, 2008

साँस ही संत्रास है

साँस ही संत्रास है तो राम जाने
हर हँसी उपहास है तो राम जाने.

मरुस्थल में जल दिखे,अच्छा शकुन है
और यदि आभास है,तो राम जाने.

अब कोई अवतार रावण का न होगा;
राम को विश्वास है तो राम जाने.

इस समंदर में हलाहल है,अमृत है;
जल की तुझको प्यास है तो राम जाने.

कोई वैदेही भला क्यों साथ भटके!
राम का वनवास है, तो राम जाने.