Saturday, July 26, 2008

बस में बैठे

बस में बैठे बैठे आंखें भर आना
भूला नहीं छोड़ कर गांव शहर जाना

कभी समन्दर की तूफ़ानों की बातें;
और कभी हल्की रिमझिम से डर जाना

बाग़ कट चुके,खेतों में सड़कें दौड़ीं;
कैसा गाँव कहां छुट्टी में घर जाना

किसने लिख दी जीवन की ये परिभाषा!
ज़िन्दा रहने की कोशिश में मर जाना

कैसा कठिन सफ़र होता है,पूछो मत,
शाम ढले बेरोज़गार का घर जाना

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