Monday, July 31, 2017

हाँ! हंसता है गोयबल्स,
ठहाके लगाता है हिटलर,
नाचता है मदोन्मत्त मुसोलिनी,
नीरो बजाता है बांसुरी
रणभेरी बजाता है रोमेल,
और ड्रम बजाता है उन जैसा ही
कोई और विदूषक.
और क्या करेंगे वे,
और क्या कर सकते हैं वे?
उन्होंने इतिहास कहां पढ़ा है!
वैसे भी वे सुन चुके हैं घोषणा
इतिहास के अन्त की.
और जिसका अन्त ही हो चुका
उसे क्या पढ़ना!
और इतिहास ही क्यों!
कुछ भी क्या पढ़ना!
और क्यों पढ़ना!
शिक्षित नहीं प्रशिक्षित हैं वे.
और बस! इतना ही काफ़ी है
उनके नज़रिए से.
(‘हँसता है गोयबल्स’ वाक्यांश के लिए ऋणी हूँ कात्यायनी जी का.)

Tuesday, May 30, 2017

शटअप ब्रेख्त! 
चुन ली है उन्होंने 
अपनी जनता.
वही तो है जो गरज रही है 
सडकों, गलियों, मोहल्लों, शहरों और देहातों में 
किसी सुनामी की तरह.
और सुनामी के लिये
कुछ भी अलंघ्य नहीं होता-
न किसी का घर, न मोहल्ला, न रसोई, न शयनकक्ष. 
सब कुछ बहा ले जाना है उसे.
और पीछे रह जाने हैं-
सड़े-गले बदबूदार शव, खण्डहर इमारतें,
भूख, प्यास, और महामारी.
और इन सबके बीच 
इधर उधर बिखरे मुनाफ़े और ऐयाशी के कुछ द्वीप.
पर वे भी कब तक टिकेंगे 
उस महाप्रलय के बाद?
उपाय एक ही है 
कि जो चन्द साँसें, जो चन्द लम्हे अभी भी बचे हैं
उन्हें समेट कर 
खड़ी करो वह अलंघ्य दीवार 
जिससे टकरा कर 
टूट-बिखर जायें
सुनामी की बर्बर लहरें.

Wednesday, April 26, 2017

आम दिनों से हट कर कोई बात हुई
आज हमारे आँगन में बरसात हुई
हम सूरज को तरसे भरी दुपहरी में
उनके घर पर धूप खिली जब रात हुई
कैसी है विडम्बना उनकी हर करुणा
हम जैसों के मन पर इक आघात हुई
मगन खेल में रहे पता कैसे चलता
हर बाज़ी वे जीते अपनी मात हुई
कैसे हो नदीम जब भी पूछा उसने
अधर चुप रहे आंखो से हर बात हुई