Wednesday, July 15, 2009

सबको मालूम थे

सबको मालूम थे हमसे भी भुलाए न गए
वे कथानक जो कभी तुमको सुनाये न गए 

गीत लिखते रहे जीवन में अंधेरों के खिलाफ़
और दो-चार दिये तुमसे जलाए न गए
 
दूर से ही सुनीं वेदों की ऋचाएं अक्सर
यज्ञ में तो कभी शम्बूक बुलाए न गए 

यूकेलिप्टस के दरख्तों में न छाया न नमी
बरगद-ओ-नीम कभी तुमसे लगाए न गए

इसी बस्ती में सुदामा भी किशन भी हैं नदीम
ये अलग बात है मिलने कभी आये न गए

Saturday, July 11, 2009

मंज़िलों से परे

मंज़िलों से परे गुज़रती है 
जिंदगी कब, कहाँ ठहरती है

यूं तो हर ओर धूप बिखरी है 
मेरे आँगन में कम उतरती है 

एक गुड्डा मिला था कचरे में
एक गुड़िया दुलार करती है 

आँधियों की कहानियां सुन कर
एक चिड़िया हवा से डरती है 

मुट्ठियाँ बांधने से क्या होगा
रेत झरनी है, रेत झरती है