Saturday, January 15, 2011

कितने दिन

कितने दिन दुस्वप्न सरीखे लौट-लौट कर आओगे
ओ अभिशप्त अतीत भला कब वर्तमान से जाओगे

तिरस्कार और उपहासों से हमको तो चुप कर दोगे 
पर अपने मन की सोचो उसको कैसे बहलाओगे   

पार उतर कर तुमने अपनी नाव जला तो डाली है
कभी लौटना पड़ा अगर तो सोचो कैसे आओगे

बूढ़ी आँखें रास्ता तकते-तकते पथरा जायेंगी
तुम भी लौटेगे ज़रूर पर उस दिन इन्हें न पाओगे

इन शरीफ़ लोगों की बस्ती से नदीम प्रस्थान करो
यहां अगर ठहरे तो तुम भी इन जैसे हो जाओगे 

Tuesday, January 4, 2011

जीवन में

जीवन में संबंधों का कुछ अजब विरोधाभास रहा
हर घनिष्ठता में शामिल एक दूरी का एहसास रहा 

कोई पुराना प्यारा चेहरा, कोई पुरानी याद न थी
बचपन की गलियों में जाकर भी मन बहुत उदास रहा

जनम-जनम का अपना नाता, हम-तुम कभी न बिछड़ेंगे
तुम भी यूं ही कहते थे, हमको भी कब विश्वास रहा 

रामकथा का सार न बदला वाल्मीकि से तुलसी तक
राम रहे राजा, सीता के हिस्से में बनवास रहा 

धनी प्रवासी पुत्र सरीखा सुख जीवन भर दूर रहा
दुःख अनपढ़ बेरोज़गार बेटे सा अपने पास रहा