Friday, November 6, 2009

चाहता हूं मगर

चाहता हूं मगर नहीं लगता

मेरा घर मेरा घर नहीं लगता

 

जिसके साये में दो घड़ी दम लूं

ऐसा कोई शजर नहीं लगता

 

अजनबी लोग, अजनबी चेहरे

ये शहर वो शहर नहीं लगता

 

ये महावर,ये मेंहदियां, ये पाँव

तू मेरा हमसफ़र नहीं लगता

 

ये धमाके तो रोज़ होते हैं

अब परिन्दों को डर नहीं लगता

 

दिल को लगते हैं लोग अच्छे भी

पर कोई उम्र भर नहीं लगता

 

तेरी चारागरी में उम्र कटी

आज तक तो असर नहीं लगता

 

आइने में भी अजनबी है कोई

ये मुझे वो अमर नहीं लगता

 

Tuesday, October 20, 2009

कब तक

कब तक धूप चुरायेंगे
ये बादल छँट    जायेंगे

आज तुम्हारा दौर सही
अपने दिन भी आयेंगे

ये परेड के फ़ौजी हैं
लड़ने से कतरायेंगे

फूल यहीं पर सूखेगा
पंछी तो उड़ जायेंगे

दर्द थमा तो चल देंगे
दर्द बढ़ा तो  गायेंगे

Saturday, October 3, 2009

सभी से

दुखों से दोस्ताना हो गया है
तुम्हें देखे ज़माना हो गया है

खिलौनों के लिये रोता नहीं है
मेरा बेटा सयाना हो गया है

भरी महफ़िल में सच कहने लगा है
इसे रोको- दिवाना हो गया है

मुखौटा इक नया ला दो कहीं से
मेरा चेहरा पुराना हो गया है

कभी संकेत में कुछ कह दिया था
उसी का अब फ़साना हो गया है


Thursday, September 24, 2009

आप सीने से

आप सीने से फिसलता हुआ आँचल देखें
या किसी पाँव में बजती हुई पायल  देखें

हम गंवारों की  मगर एक ही रट है साहब 
प्यासे खेतों पे बरसता हुआ बादल देखें

बुद्धिमानों की नसीहत से तो दिल ऊब चुका
अब तो चल कर कोई वहशी, कोई पागल देखें

घर की दीवारों के उस पार भी झांकें तो सही
और सड़कों पे उबलती हुई हलचल देखें

कोई दहशत है के वहशत मेरी आँखों में नदीम
शाख़ भी टूटे तो कटता हुआ जंगल देखें.

Saturday, August 22, 2009

ज़िंदगी भी


ज़िंदगी भी अजब तमाशा है
हर घड़ी कुछ नया-नया सा है 

दिल ठहरने की सोचता भी नहीं
पाँव ही कुछ थका-थका सा है

मुन्तज़िर है किसी के दामन का
एक आंसू रुका-रुका सा है

जब से बादाकशी से तौबा की
अपना साक़ी ख़फ़ा-ख़फ़ा सा है

कुछ सयानों की देख कर फितरत 
एक बच्चा डरा-डरा सा है 


Monday, August 10, 2009

प्यार की

 
प्यार की; दोस्ती की बात करें 
आइये ज़िंदगी की बात करें

आँधियों में जो टिमटिमाती है
आज उस रौशनी की बात करें

बारिशों में नहा के घर लौटें
तरबतर सी ख़ुशी की बात करें

दर्द  को  ख़ूब  परेशान  करें
खिलखिला कर हँसी की बात करें

ये फ़रिश्ते कहाँ से समझेंगे
इनसे क्या आदमी की बात करें 


Wednesday, July 15, 2009

सबको मालूम थे

सबको मालूम थे हमसे भी भुलाए न गए
वे कथानक जो कभी तुमको सुनाये न गए 

गीत लिखते रहे जीवन में अंधेरों के खिलाफ़
और दो-चार दिये तुमसे जलाए न गए
 
दूर से ही सुनीं वेदों की ऋचाएं अक्सर
यज्ञ में तो कभी शम्बूक बुलाए न गए 

यूकेलिप्टस के दरख्तों में न छाया न नमी
बरगद-ओ-नीम कभी तुमसे लगाए न गए

इसी बस्ती में सुदामा भी किशन भी हैं नदीम
ये अलग बात है मिलने कभी आये न गए

Saturday, July 11, 2009

मंज़िलों से परे

मंज़िलों से परे गुज़रती है 
जिंदगी कब, कहाँ ठहरती है

यूं तो हर ओर धूप बिखरी है 
मेरे आँगन में कम उतरती है 

एक गुड्डा मिला था कचरे में
एक गुड़िया दुलार करती है 

आँधियों की कहानियां सुन कर
एक चिड़िया हवा से डरती है 

मुट्ठियाँ बांधने से क्या होगा
रेत झरनी है, रेत झरती है

Tuesday, June 30, 2009

मैं बतलाऊं

मैं बतलाऊं कैसा बन जा
बिलकुल अपने जैसा बन जा

सरदी में सूरज बन कर जल
जेठ तपे तो छाया बन जा

तनहा क़तरे की हस्ती क्या
सबसे मिल कर दरिया बन जा

सदियों से गूंगी है मूरत
इसे छेड़ दे, नग़मा बन जा

समझदार बन कर क्या होगा
चल नदीम फिर बच्चा बन जा

Wednesday, June 24, 2009

ग़ज़ल संग्रह का लोकार्पण

अलीगढ़, २१ जून,२००९ 
डा. अमर ज्योति 'नदीम' के प्रथम ग़ज़ल संग्रह 'आँखों में कल का सपना है'
का लोकार्पण पद्मभूषण गोपाल दास नीरज ने होटल 'मेलरोज़ इन' में किया.
कार्यक्रम की अध्यक्षता जयपुर से पधारे प्रख्यात शायर लोकेश कुमार सिंह'साहिल'
ने की.
कार्यक्रम का शुभारम्भ गीतकार बनज कुमार 'बनज' की सरस्वती वन्दना से हुआ.
श्रीमती अर्चना'मीता', प्रो.आलोक शर्मा और पुश्किन द्वारा अतिथियों का माल्यार्पण
द्वारा अभिनन्दन किया गया. विमोचन करते हुए पद्मभूषण गोपाल दास नीरज ने कहा
कि नदीम की ग़ज़लों में ग़ज़ल के सभी तत्त्व विद्यमान हैं और वे एक समर्थ शायर व 
गज़लकार हैं. इस अवसर पर नीरज ने ग़ज़ल की विकास यात्रा पर प्रकाश डालते हुए
ग़ज़ल को आधुनिक काव्य की एक लोकप्रिय विधा बताया और अपने गीत व ग़ज़ल
भी सुनाये. 
नदीम ने अपने लोकार्पित संग्रह से कुछ गज़लें पढीं और मनमोहन ने संग्रह की एक 
ग़ज़ल की संगीतमय प्रस्तुति की. नदीम की ग़ज़ल 'हम जिये सारे खुदाओं,देवताओं
के बगैर' को ख़ूब सराहना मिली.
जयपुर से पधारे ख्यातिप्राप्त गज़लकार व समीक्षक अखिलेश तिवारी, अरुणाचल प्रदेश
से पधारे डा.मधुसूदन शर्मा, व हिन्दी साहित्य के प्रोफेसर प्रेमकुमार ने संग्रह के बारे
में अपने-अपने समीक्षात्मक आलेख भी पढ़े. प्रेम पहाड़पुरी व सुरेन्द्र सुकुमार ने
नदीम के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर प्रकाश डाला. 
समारोह के उत्तरार्द्ध में एiक कवि-गोष्ठी आयोजित की गई
जिसमें अशोक अंजुम(अलीगढ़),बनज कुमार बनज(जयपुर), अखिलेश तिवारी(जयपुर),
महेश चन्द्र गुप्त 'खलिश'(दिल्ली), राजकुमार 'राज'(दिल्ली) और लोकेश कुमार
सिंह 'साहिल'(जयपुर) ने कविता पाठ किया.समारोह के अंत में संग्रह के
प्रकाशक 'अयन प्रकाशन' के स्वामी भूपाल सूद ने धन्यवाद ज्ञापन 
किया. प्रख्यात साहित्यकार, साहित्यिक पत्रिका 'अभिनव प्रसंगवश'
के संपादक एवं स्थानीय धर्मसमाज महाविद्यालय के हिन्दी विभागाध्यक्ष
प्रोफेसर वेदप्रकाश अमिताभ ने कार्यक्रम का संचालन किया.

Saturday, June 6, 2009

कितने ही पौधे

कितने ही पौधे छाँव में बरगद की मर गये
इलज़ाम मगर धूप के, सूरज के सर गये

सदियों  से जिन्हें  आपने  बाँधा  है  हदों में
क्या होगा किसी रोज़ जो हद से गुज़र गये

इक  बावला जो चीख़ के  सच बोलने लगा
सारे  शरीफ़  लोग अचानक  ही  डर  गये

पतवार जिनको सौंप के हम सब थे मुतमइन
वे  लोग  नाव  चलने  से  पहले  उतर गये

इक  अजनबी  मकान किराये का था नदीम
और हम समझ रहे थे के हम अपने घर गये

Saturday, April 4, 2009

सच्चाई का दम

सच्चाई का दम भरता है;
कोई दीवाना लगता है।

कन्धों पर है बोझ आज का,
आँखों में कल का सपना है।

घनी अमावस की स्याही को,
जुगनू शर्मिंदा करता है।

दुःख सागर सा, सुख मोती सा,
ये दुनिया कैसी दुनिया है?

आसमान को तकने वाले!
आसमान में क्या रक्खा है?

मौत ज़िन्दगी पर

मौत ज़िन्दगी पर भारी है;
पर क्या करिये लाचारी है।

छीन-झपट कर,लूट- कपट कर,
बचे रहे तो हुशियारी है।

भरे पेट वालों में यारी,
भूखों में मारामारी है।

परिवर्तन भी प्रायोजित है;
और बगा़वत सरकारी है।

सुख को कुतर गए हैं चूहे;
जीवन टूटी अलमारी है।

Thursday, March 26, 2009

सूखी अमराइयों में

सूखी अमराइयों में क्या जायें!
टूटी शहनाइयों में क्या जायें!!

उन अंधेरों में कुछ नहीं मिलता,
मन की गहराइयों में क्या जायें!

काट दें ज़िन्दगी की हलचल से,
ऐसी तनहाइयों में क्या जाएँ!

भेस शोहरत का रख के मिलती हैं,
ऐसी रुसवाइयों में क्या जाएं!

अपनी आदत है लू के झोंकों की,
तेरी पुरवाइयों में क्या जायें!

जो अन्धेरों में साथ रह न सकें,
ऎसी परछाइयों में क्या जाएं!

हम ग़म-ऐ-रोज़गार के मारे,
उनकी अंगड़ाइयों में क्या जाएं!

Monday, March 23, 2009

दुख के दिन

दुख के दिन चैन से गुज़ारे हैं;
हम तो अपने सुखों से हारे हैं

बांध लेते हैं कश्तियाँ अक्सर;
असली दुश्मन तो ये किनारे हैं


कहकशाओं से कुछ दिये लेकर
हमने मिट्टी के घर संवारे हैं।

अपनी पूंजी हैं बस वही दो पल,
जो तेरे साथ में गुज़ारे हैं

मेरे पंखों के टूटने पे जा;
मेरे सपनों में चाँद-तारे हैं


Saturday, March 7, 2009

ऊब गया है

ऊब गया है बैठे ठाले;
चल थोड़ा सा नीर बहा ले

शर्ट पहन चे गुएवरा की;
उसका सपना राम हवाले.

जब भी सुख से मन उकताए,
गीत सर्वहारा के गा ले।

कमरे में सी के ऊपर,
लेनिन की तस्वीर सजा  ले

परिवर्तन होगा, तब होगा;
इस सिस्टम में जगह बना ले

Friday, February 27, 2009

कोई भी पर्दा

कोई भी पर्दा, कोई राज़-ओ-राज़दार नहीं;
हमारे घर में कोई छत नहीं, दिवार नहीं।

हमें तो ख़ुद ही बनाने हैं अपने स्वर्ग-नरक;
हमें तुम्हारे ख़ुदाओं पे ऐतबार नहीं।

तेरा निज़ाम है- कर दे कलम ज़ुबान-ए-सुख़न,
मगर ज़हन पे तो तेरा भी अख़्तियार नहीं।

हमें पता है के ये ज़ख़्म भरेंगे कैसे;
हमें किसी भी मसीहा का इन्तज़ार नहीं।

कफ़स में एक सी रुत है तमाम उम्र नदीम;
ख़िज़ां का ख़ौफ़ नहीं; नक़हत-ए-बहार नहीं।

Friday, February 20, 2009

सिर्फ़ उम्मीद थी

सिर्फ़ उम्मीद थी; बहाना था;
तुम न आये, तुम्हें न आना था।

दिल में तनहाइयों का सन्नाटा,
और चारो तरफ़ ज़माना था

दीन-ओ-दुनिया से फिर कहां निभती!
दिल को तेरे क़रीब आना था।

एक तूफ़ान आ गया; वरना
ये सफ़ीना भी डूब जाना था।

लौट आए दर-ऐ-बहिश्त से हम;
वां तो सजदे में सर झुकाना था।

खो गया तेज़-रौ ज़माने में;
प्यार का फ़लसफ़ा पुराना था।

ये जो इक ढेर राख का है नदीम-
कल तलक अपना आशियाना था।

Tuesday, January 27, 2009

मज़हबी संकीर्णताओं

मज़हबी संकीर्णताओं, वर्जनाओं के बगै़र;
हम जिये सारे ख़ुदाओं, देवताओं के बगै़र।

राह में पत्थर भी थे, कांटे भी थे, पर तेरे साथ,
कट गया अपना सफ़र भी कहकशाओं के बग़ैर।

मुफ़लिसी में खुल गया हर एक रिश्ते का भरम
उम्र काटी  है  बुज़ुर्गों की दुआओं के बग़ैर।

कुछ तो अपना हौसला था, और कुछ मजबूरियां;
पार कर आए समन्दर नाख़ुदाओं के बग़ैर।

मत भरोसा बादबानी क़श्तियों का कर नदीम;
ये कहीं ले जा न पाएंगी हवाओं के बग़ैर।

Thursday, January 22, 2009

बाग़बां

बाग़बां बन के सय्याद आने लगे;
बुलबुलों को मुहाजिर बताने लगे।

भाईचारा! मुहब्बत! अमन! दोस्ती!
भेड़ियों के ये पैग़ाम आने लगे।


आपसे तो तक़ल्लुफ़ का रिश्ता न था;
आप भी दुनियादारी निभाने लगे!

दर्द वो क्या जो गुमसुम सा बैठा रहे!
दर्द तो वो है जो गुनगुनाने लगे।

एक लमहा था; आया,गुज़र भी गया;
पर उसे भूलने में ज़माने लगे।

Saturday, January 10, 2009

हमने पूछा

हमने पूछा ज़िंदगी की रहगुज़ारों का पता;
आपने हमको बताया चाँद-तारों का पता।

मुद्दतों पहले गिरा था आँधियों में इक शजर,
खोजती है आज तक बुलबुल बहारों का पता।

जिनके हाथों का हुनर ताज-ओ-पिरामिड में ढला,
क्या किसी को याद है उनके मज़ारों का पता?

धूप के छोटे से टुकड़े की ज़रूरत है उसे;
पूछता फिरता है सूरज अन्धकारों का पता।

नाख़ुदाओं के भरोसे डूबना तय था नदीम;
हमने तूफ़ानों में पाया है किनारों का पता।