सूखी अमराइयों में क्या जायें!
टूटी शहनाइयों में क्या जायें!!
उन अंधेरों में कुछ नहीं मिलता,
मन की गहराइयों में क्या जायें!
काट दें ज़िन्दगी की हलचल से,
ऐसी तनहाइयों में क्या जाएँ!
भेस शोहरत का रख के मिलती हैं,
ऐसी रुसवाइयों में क्या जाएं!
अपनी आदत है लू के झोंकों की,
तेरी पुरवाइयों में क्या जायें!
जो अन्धेरों में साथ रह न सकें,
ऎसी परछाइयों में क्या जाएं!
हम ग़म-ऐ-रोज़गार के मारे,
उनकी अंगड़ाइयों में क्या जाएं!
टूटी शहनाइयों में क्या जायें!!
उन अंधेरों में कुछ नहीं मिलता,
मन की गहराइयों में क्या जायें!
काट दें ज़िन्दगी की हलचल से,
ऐसी तनहाइयों में क्या जाएँ!
भेस शोहरत का रख के मिलती हैं,
ऐसी रुसवाइयों में क्या जाएं!
अपनी आदत है लू के झोंकों की,
तेरी पुरवाइयों में क्या जायें!
जो अन्धेरों में साथ रह न सकें,
ऎसी परछाइयों में क्या जाएं!
हम ग़म-ऐ-रोज़गार के मारे,
उनकी अंगड़ाइयों में क्या जाएं!
क्या जायें!
ReplyDeleteक्या जायें!कह कर कितना हम उन्हीं बातों में जाते हैं , जो दिल में गहरी बैठी हैं ? बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति
बहुत ही नपे तुले शब्दों में गहरी बातें की हैं आपने सच में हर शेर बहुत ही बढ़िया है ...
ReplyDeletenahin jaane se aapka hee nuksaan!!
ReplyDelete:)
सारे चेहरे ही अजनबी हों जहाँ,
ReplyDeleteऎसी परछाइयों में क्या जाएं!
हम ग़म-ऐ-रोज़गार के मारे,
तेरी अंगड़ाइयों में क्या जाएं!
waah bahut hi badhia,badhai
अच्छी रचना के लिये बधाई स्वीकारें बंधुवर
ReplyDeleteपढ़कर आनंद आया।
ReplyDeleteउन अंधेरों में कुछ नहीं मिलता,
ReplyDeleteमन की गहराइयों में क्या जायें!
अच्छी बात है. उत्तर मिले तो अवश्य बतायें
सूखी अमराइयों में क्या जायें!
ReplyDeleteटूटी शहनाइयों में क्या जायें!!
--सूखे बाग़ बगीचे देखें राह किसी माली की फिर से
और साज़ टूटे अकुलायें कोई आये स्पर्श से जिसके
गूँज उठे मन का बागीचा,
नहीं किसी ने जिसको सींचा
++++++++++
उन अंधेरों में कुछ नहीं मिलता,
मन की गहराइयों में क्या जायें!
--मन ही है एक सच्चा दर्पण,
परिधानों का होता तर्पण
मन के भीतर सत्य सनातन
मन ही स्वपन दिखाए नूतन
++++++++++
काट दें ज़िन्दगी की हलचल से,
ऐसी तनहाइयों में क्या जाएँ!
--कभी तन्हाईयों की झीलों में, यादों के कंकर फेंकता हूँ
हो जाता हूँ ज़ुदा सबसे, जो तेरा तसव्वुर देखता हूँ
++++++++++
भेस शोहरत का रख के मिलती हैं,
ऐसी रुसवाइयों में क्या जाएं!
--Well said! Uneasy lies the head that wears a crown!
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अपनी आदत है लू के झोंकों की,
तेरी पुरवाइयों में क्या जायें!
--मय्यसर होगी राहतें उनको
भाती है हरेक घड़ी जिनको
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सारे चेहरे ही अजनबी हों जहाँ,
ऎसी परछाइयों में क्या जाएं!
--कभी तो थे आप भी अजनबी,
आपने बात की, बात आगे बढ़ी
+++++
हम ग़म-ऐ-रोज़गार के मारे,
उनकी अंगड़ाइयों में क्या जाएं!
--बहुत सुन्दर !
"जो अन्धेरों में साथ रह न सकें,
ReplyDeleteऎसी परछाइयों में क्या जाएं!"
--अमर जी ये अब बहुत सुन्दर बन पड़ा है.
हाँ थोड़ा hackneyed है, आपके mind के compass के हिसाब से :) आपके हर शेर में हमेशा नयी-नयी बातें होती हैं. मज़ा आता है. अब आपको इतना मान दे के पढ़ती हूँ तो कभी कभी demand भी कर सकती हूँ ना :)
बहुत खूब भाई जी
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