Monday, March 23, 2009

दुख के दिन

दुख के दिन चैन से गुज़ारे हैं;
हम तो अपने सुखों से हारे हैं

बांध लेते हैं कश्तियाँ अक्सर;
असली दुश्मन तो ये किनारे हैं


कहकशाओं से कुछ दिये लेकर
हमने मिट्टी के घर संवारे हैं।

अपनी पूंजी हैं बस वही दो पल,
जो तेरे साथ में गुज़ारे हैं

मेरे पंखों के टूटने पे जा;
मेरे सपनों में चाँद-तारे हैं


10 comments:

  1. बहुत सुन्दर रचना लिखी है!!
    बधाई.

    ReplyDelete
  2. अपनी पूंजी हैं बस वही दो पल,
    जो तेरे साथ में गुज़ारे हैं।

    मेरे पंखों के टूटने पे न जा;
    मेरे सपनों में चाँद-तारे हैं।
    waah bahut badhiya

    ReplyDelete
  3. बांध लेते हैं कश्तियाँ अक्सर;
    असली दुश्मन तो ये किनारे हैं।

    वाह वाह.. बहुत खूब ....
    बेमिसाल हुनर के मालिक हैं आप .....

    ReplyDelete
  4. मेरे दुख बांध लेते हैं . . . अपनी पूंजी कोई

    ReplyDelete
  5. दुख के दिन चैन से गुज़ारे हैं;
    हम तो अपने सुखों से हारे हैं।
    आप की कविता बहुत ही सुंदर लगी

    ReplyDelete
  6. बहुत अच्‍छी रचना। प्रत्‍येक पंक्ति शब्‍दों के अर्थवान मोतियों से गुथी हुई माला जैसी है।

    ReplyDelete
  7. "दुख के दिन चैन से. . ."
    --बहुत ही नाज़ुक बात !

    "बांध लेते हैं कश्तियाँ . . ."
    --मन भिगो दिया !

    "अपनी पूंजी हैं . . ."
    --मीठी बात :)

    "मेरे पंखों के . . ."
    --क्या मिजाज़, क्या अल्फाज़ ! बहुत ही सशक्त !
    कुल मिला के बहुत उम्दा ! आपके चिठ्ठे पे आती हूँ तो हमेशा धनी हो के ही लौटती हूँ.

    ReplyDelete
  8. "कहकशाओं से कुछ दिये लेकर
    हमने मिट्टी के घर संवारे हैं।"
    कितना सुन्दर हो गया है ! बदल दिया है न यह शेर :)
    बहुत आभार :)

    ReplyDelete