Tuesday, September 4, 2012

आंख के आकाश पर

आंख  के आकाश पर बदली तो छाई है ज़रूर 
हो न हो कल फिर किसी की याद आई है ज़रूर

उड़ चला जिस पल परिंदा कुछ न बोली चुप रही 
डाल बूढ़े नीम की पर थरथराई है ज़रूर 

मयकशों ने तो संभल कर ही रखे अपने क़दम 
वाइज़ों की चाल अक्सर डगमगाई है ज़रूर 

लोग मीलों दूर जा कर फूंक आये बस्तियां 
आंच पर थोड़ी तो उनके घर भी आई है ज़रूर 

हिटलर-ओ-चंगेज़ के भी दौर आये पर नदीम 
ज़िन्दगी उनसे उबर कर मुस्कराई है ज़रूर  


Monday, July 23, 2012

उनकी महफ़िल है

उनकी महफ़िल है फ़क़त हंसने हंसाने के लिये
कौन जाये दर्द की गाथा सुनाने के लिये

जेब में मुस्कान रख कर घूमता है आदमी
जब जहां जैसी ज़रूरत हो दिखाने के लिये

ले गये कमज़र्फ हंस हंस कर वफ़ाओं की सनद
हम सरीखे ही बचे हैं आज़माने के लिये

गाँव में क्या था कि रुकते खेत घर सब बिक चुके
अब भटकते हैं शहर में आब-ओ-दाने के लिये

आज फिर राजा को नंगा कह गया सरकश कोई
फिर से हैं तैयारियां मकतल सजाने के लिये  

Monday, April 30, 2012

दर्द आँखों में नहीं 

दर्द आँखों में नहीं दिल में दबाए रखना
इस ख़ज़ाने को ज़माने से छुपाए रखना

हमने बोये हैं अंधेरों में सदा धूप के बीज
हमको आता है उमीदों को जगाए रखना

आज के ख़त ये कबूतर ही तो पहुंचाएंगे कल
इन परिंदों को धमाकों से बचाए रखना 

सारे रिश्तों की हक़ीक़त न परखने लगना
कुछ भरम जीने की ख़ातिर भी बचाए रखना

उसके आने का भरोसा तो नहीं फिर भी नदीम
इक दिया आस का देहरी पे जलाए रखना