Saturday, June 6, 2009

कितने ही पौधे

कितने ही पौधे छाँव में बरगद की मर गये
इलज़ाम मगर धूप के, सूरज के सर गये

सदियों  से जिन्हें  आपने  बाँधा  है  हदों में
क्या होगा किसी रोज़ जो हद से गुज़र गये

इक  बावला जो चीख़ के  सच बोलने लगा
सारे  शरीफ़  लोग अचानक  ही  डर  गये

पतवार जिनको सौंप के हम सब थे मुतमइन
वे  लोग  नाव  चलने  से  पहले  उतर गये

इक  अजनबी  मकान किराये का था नदीम
और हम समझ रहे थे के हम अपने घर गये

8 comments:

  1. बहुत ही गहरे भाव लिये है आप की यह रचना, बहुत खुब.

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  2. kyaa baat haen
    hare shabd kae athaah arth haen

    bahut din baad kuch achcha padh kar aapne aap waah nikal gayee

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  3. हज़ार बातों से बढ़कर यह ग़ज़ल

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  4. कितने ही पौधे छाँव में बरगद की मर गयेइलज़ाम मगर धूप के, सूरज के सर गये

    इक बावला जो चीख़ के सच बोलने लगासारे शरीफ़ लोग अचानक ही डर गये

    Har pankti asardar hai.Bahut achche.

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  5. dr sahib kitaab ke liye haardik badhayee :))
    is ghazal ke antim do sher bahut bahut khoobsoorat hain :)

    Annkhon main kal ka sapna hain ke Vimochan ke liye aankhein bichin hain ab toh. All the best :) Vishu ki taraf se bhee , double congrats :)

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  6. ग़ज़ल के सभी शेर एक से बढ़ कर एक.
    बधाई स्वीकार करें
    चन्द्र मोहन गुप्त

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  7. सच्चाई बयान करती आपकी यह रचना दिल को छू जाती है

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