मज़हबी संकीर्णताओं, वर्जनाओं के बगै़र;
हम जिये सारे ख़ुदाओं, देवताओं के बगै़र।राह में पत्थर भी थे, कांटे भी थे, पर तेरे साथ,
कट गया अपना सफ़र भी कहकशाओं के बग़ैर।
मुफ़लिसी में खुल गया हर एक रिश्ते का भरम
उम्र काटी है बुज़ुर्गों की दुआओं के बग़ैर।
कुछ तो अपना हौसला था, और कुछ मजबूरियां;
पार कर आए समन्दर नाख़ुदाओं के बग़ैर।
मत भरोसा बादबानी क़श्तियों का कर नदीम;
ये कहीं ले जा न पाएंगी हवाओं के बग़ैर।
खूबसूरत गज़ल !
ReplyDeleteइस कदर महँगी दुआएं तक हुईं इस दौर में;
ReplyDeleteजीते हैं मुफ़लिस बुज़ुर्गों की दुआओं के बग़ैर।
कुछ तो अपना हौसला था, और कुछ मजबूरियां;
पार कर आए समन्दर नाख़ुदाओं के बग़ैर।
bahut hi behtreen
बधाई....
इस कदर महँगी दुआएं तक हुईं इस दौर में;
ReplyDeleteजीते हैं मुफ़लिस बुज़ुर्गों की दुआओं के बग़ैर।
--गजब!! बहुत उँची बात-उतनी ही गहरी.
हौसला ही रहा होगा. मजबूरियाँ तो ले डूबतीं. सुंदर रचना. आभार
ReplyDeleteराह में पत्थर भी थे, कांटे भी थे, पर तेरे साथ,
ReplyDeleteकट गया अपना सफ़र भी कहकशाओं के बग़ैर।
कुछ तो अपना हौसला था, और कुछ मजबूरियां;
पार कर आए समन्दर नाख़ुदाओं के बग़ैर।
बहुत ख़ूब
एक से बढ़ कर एक शेर.
बधाई
द्विजेन्द्र द्विज
www.dwijendradwij.blogspot
मज़हबी संकीर्णताओं, वर्जनाओं के बगै़र;
ReplyDeleteहम जिए सारे ख़ुदाओं, देवताओं के बगै़र।
बहुत सुंदर.
धन्यवाद
इन दिनों पढ़ी गई ग़ज़लों में अरसे तक असर छोड़ने वाली. बधाई
ReplyDeleteकुछ तो अपना हौसला था, और कुछ मजबूरियां;
ReplyDeleteपार कर आए समन्दर नाख़ुदाओं के बग़ैर।
मत भरोसा बादबानी क़श्तियों का कर नदीम;
ये कहीं ले जा न पाएंगी हवाओं के बग़ैर।
-सुंदर.
"राह में पत्थर भी थे, कांटे भी थे, पर तेरे साथ,
ReplyDeleteकट गया अपना सफ़र भी कहकशाओं के बग़ैर। "
वाह! वाह! क्या बात है अमर जी :)
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"इस कदर महँगी दुआएं तक हुईं इस दौर में;
लोग जीते हैं बुज़ुर्गों की दुआओं के बग़ैर। "
हाय ! ये बहुत ही अच्छा लगा!!
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"मत भरोसा बादबानी क़श्तियों का कर नदीम;
ये कहीं ले जा न पाएंगी हवाओं के बग़ैर।"
एक शेर याद आया बडा मश्हूर सा:
"अपनी मर्जी से कहाँ अपने सफर के हम हैं,
रुख हवाओं का जिधर का है उधर के हम हैं"
आप यूँ ही लिखते रहें !
Ghar ke liye nikal rahi thi ki ek aur sher yaad aaya. Javed Akhtar sahab ka hai shaayad ,
ReplyDelete"सब हवाएं ले गया मेरे समंदर की कोई
और मुझको एक कश्ती बादबानी दे गया"
Bilkul uska jawab sa lagta hai aapka yeh sher. bahut khoob !!
"मत भरोसा बादबानी क़श्तियों का कर नदीम;
ये कहीं ले जा न पाएंगी हवाओं के बग़ैर।"
वाह अमर जी! क्या सशक्त तरीके से आपने एक बहुत बडी सच्चाई का वर्णन किया है !!
ReplyDeleteसस्नेह -- शास्त्री
-- हर वैचारिक क्राति की नीव है लेखन, विचारों का आदानप्रदान, एवं सोचने के लिये प्रोत्साहन. हिन्दीजगत में एक सकारात्मक वैचारिक क्राति की जरूरत है.
महज 10 साल में हिन्दी चिट्ठे यह कार्य कर सकते हैं. अत: नियमित रूप से लिखते रहें, एवं टिपिया कर साथियों को प्रोत्साहित करते रहें. (सारथी: http://www.Sarathi.info)
Log jite hai bujurgon ki duaon ke bagir
ReplyDeletewah kya baat hai
मज़हबी संकीर्णताओं, वर्जनाओं के बगै़र;
ReplyDeleteहम जिए सारे ख़ुदाओं, देवताओं के बगै़र।
वाह......!बहुत खूब.......!
राह में पत्थर भी थे, कांटे भी थे, पर तेरे साथ,
ReplyDeleteकट गया अपना सफ़र भी कहकशाओं के बग़ैर।
बेहतरीन
"रौशनी के साथ रखना है अंधेरों का पता ,
ReplyDeleteजिंदगी भी क्या कटेगी, आपदाओं के बगैर..."
हुज़ूर ! बहोत ही खूबसूरत ग़ज़ल कही है ....
मुबारकबाद कुबूल फरमाएं .....
---मुफलिस---
सर्वेश्वर के बिना? मुश्किल है. लेकिन मजहबी संकीर्णताओं के बिना, वह संभव है, जरूरी है!!
ReplyDeleteसस्नेह -- शास्त्री
इस कदर महँगी दुआएं तक हुईं इस दौर में;
ReplyDeleteलोग जीते हैं बुज़ुर्गों की दुआओं के बग़ैर।
सही कहा है आपने.
MY GOD! Aaj bhi kuchh nahin !!! :(
ReplyDeleteDr. Sahib, itni delay? Kya hua hai aapke random number generator ko !!! Why is it not rumbling any more ?
Likhiye bhi ab :) :)
And this is an order :)