Friday, February 20, 2009

सिर्फ़ उम्मीद थी

सिर्फ़ उम्मीद थी; बहाना था;
तुम न आये, तुम्हें न आना था।

दिल में तनहाइयों का सन्नाटा,
और चारो तरफ़ ज़माना था

दीन-ओ-दुनिया से फिर कहां निभती!
दिल को तेरे क़रीब आना था।

एक तूफ़ान आ गया; वरना
ये सफ़ीना भी डूब जाना था।

लौट आए दर-ऐ-बहिश्त से हम;
वां तो सजदे में सर झुकाना था।

खो गया तेज़-रौ ज़माने में;
प्यार का फ़लसफ़ा पुराना था।

ये जो इक ढेर राख का है नदीम-
कल तलक अपना आशियाना था।

14 comments:

  1. क्‍या खूब कहा है-
    ये जो इक ढेर राख का है नदीम-कल तलक अपना आशियाना था।

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  2. सिर्फ़ उम्मीद थी; बहाना था;
    तुम न आये, तुम्हें न आना था।


    bahut khoob..! har sher sundar

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  3. sunder shabd man ko reejhaa hii daetey haen

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  4. एक तूफ़ान आ गया; वरना
    ये सफ़ीना भी डूब जाना था।

    वाह! क्या बात है! फिर तो तूफान को थैंक्यू बोलना चाहिए.

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  5. सिर्फ़ उम्मीद थी; बहाना था;
    तुम न आये, तुम्हें न आना था।

    दिल में तनहाइयों का सन्नाटा,
    और चारो तरफ़ ज़माना था ।
    bahut sundar likha hai.

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  6. बहुत उम्दा गज़ल है।बधाई।

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  7. By God!! Wow!!
    yeh hui na baat Dr. Saahib :)
    Chaliye delay maaf ki is khoobsoorat ghazal ki khushi main !!

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  8. अमर जी,
    बहुत ही खूब !
    पहली बात तो आजकल आपकी गज़लों में एक रुमानी (या रुहानी!) सा शेर देख कर अच्छा लगता है :)

    "सिर्फ़ उम्मीद थी; बहाना था;
    तुम न आये, तुम्हें न आना था। "
    -- बेहद खूबसूरत ! क्या बात है !!

    कितने खूब हैं ये सारे शेर भी, कितने कम शब्दों में कितनी बडी बात :

    "हम से क़ाफ़िर कहां, बहिश्त कहां!
    वां तो सजदे में सर झुकाना था। "
    ----------------

    "एक तूफ़ान आ गया; वरना
    ये सफ़ीना भी डूब जाना था।

    ये जो इक ढेर राख का है नदीम-
    कल तलक अपना आशियाना था।"

    इन दो शेरों को पढ के कुछ याद आया, किनका है as usual पता नहीं :( । नीचे लिखा है, आप भी लुफ्त उठायें । और अगली बार साहिब थोडा जल्दी-जल्दी लिखें। पाठकों को चिन्ता हो जाती है :)

    "दबी हुई है, जहां सोज, आग सीने में,
    मैं राख हूं, पै शरारों की बात करता हूं।
    भंवर है मेरा सफ़ीना है बादबां मौजें,
    तलातुमों में किनारों की बात करता हूं।"

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  9. ये तो सरासर क़त्ल है BOSS. अब पाँच कमेंट्स करूं क्या ?

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  10. हम से क़ाफ़िर कहां, बहिश्त कहां!
    वां तो सजदे में सर झुकाना था।
    बहुत ही सुंदर जी , एक दम लाजवाब.
    धन्यवाद

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  11. bahut umdaa aur meaari sher...
    ek bahut achhi gazal...
    aapke yahaaN aana sukoon-bakhsh hua
    badhaaaeee. . . . .
    ---MUFLIS---

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  12. very nice ..

    -tarun
    http://tarun-world.blogspot.com

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  13. अमरजी

    हर शेर एक दूसरे से बढ़कर

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