Tuesday, July 29, 2008

यही आँख थी

यही आँख थी के जनम-जनम से जो भीगने को तरस गई;
इसी ख़ुश्क आँख की रेत से ये घटा कहाँ से बरस गई!

ये थी किसकी याद जो टूट कर मेरी ज़िन्दगी पे बिखर गई!
मेरे दिल की ज़र्द सी दूब भी जो कदम-कदम पे सरस गई।

मेरी तश्नगी भी कमाल थी; जहां एक बूंद मुहाल थी;
बही किस दिशा से ये नम हवा, मेरी तश्नगी भी झुलस गई!

वो ग़ज़ल जो एक क़लाम थी, जो किसी को मेरा सलाम थी,
मेरे दिल के दश्त को छोड़ कर जाने कौन देस में बस गई!

वो तेरा ख़ुलूस थी, प्यार थी, तेरी रहमतों की फुहार थी;
मेरे प्यासे खेतों को छोड़ कर, जो समंदरों पे बरस गई।

कभी धूप थी,कभी रात थी, ये हयात कैसी हयात थी!
कभी फूल बन के महक गई, कभी ज़हर बन के जो डस गई।

1 comment:

  1. इतना खुबसूरत लिखते हैं आप और यहाँ इतनी तन्हाई ! यहाँ अच्छों की कद्र नहीं होती

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