Monday, July 21, 2008

मुक्तक

(1)
मानिये मत यूँ धुएं से हार बंधु ;
देखिये है रोशनी उस पार बंधु।
रक्त का झरना बहा सर से तो क्या,
ज़ुल्म की भी हिल चली दीवार बंधु॥
(2)
रवाँ हों अश्क लबों पर हँसी नज़र आये;
चिता की लौ में नई ज़िन्दगी नज़र आये।
क़दम क़दम पे फ़रिश्तों की भीड़ मिलती है;
कभी कहीं तो कोई आदमी नज़र आये॥
(3)
बुझा दे प्यास समन्दर में वो लहर तो नहीं;
ये कँकरीट का जंगल कोई शहर तो नहीं।
जिन्हें है दिन के उजालों से इश्क, उनके लिये,
शब-ए-विसाल भी शब ही तो है,सहर तो नहीं॥

No comments:

Post a Comment