सपनों का अब निगाह से मंज़र समेटिये,
सूरज की आँख खुल गई, बिस्तर समेटिये।
दे दीजियेगा बाद में औरों को मशविरा;
फ़िलहाल अपना गिरता हुआ घर समेटिये।
फूलों की बात समझें, कहाँ हैं वो देवता?
ये दानवों का दौर है; पत्थर समेटिये।
जब से गए हैं आप, बिखर सा गया हूँ मैं,
खो जाउंगा हवाओं में, आकर समेटिये।
कुछ आँधियों ने कर दिया जिसको तितर-बितर,
उठिए 'नदीम' साब! वो लश्कर समेटिये.
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manzil e nisha ka bas yuhi dil mein aaya khayal to kavita mein utar gaya,shayad manzil ki chah mein tha uska arth
ReplyDeletekya baat hai, kya baat hai!
ReplyDeletechain se baith ke comment likhna padega shaam ko :)
Toh yeh gul khil raha tha anupam sa, isliye itni der laga dee thee aapne :)
जो जो बोला था सब समेट लिया . काफी ज्यादा सामान होगया . एक ट्रक और समेट लूँ ? :)
ReplyDeleteबहुत बढिया गजल है।बधाई\
ReplyDeleteसपनों का अब निगाह से मंज़र समेटिये,
सूरज की आँख खुल गई, बिस्तर समेटिये।
ये लीजिये चैन से बैठ कर भी शब्द नहीं मिल रहे हैं कि कैसे प्रसंशा की जाये । इसलिये फिर वही -- क्या बात है, क्या बात है !
ReplyDeleteवैसे तो आप हमेशा ही उम्दा लिखते हैं, पर जानते हैं कि आज की गजल में क्या फर्क है । (मेरी अल्पबुद्धि से) : इस गजल में सारे भाव हैं, केवल कडुवा सत्य नहीं , इसमें शरारत भी है। जितनी औरों से कही गयी, उतनी खुद से भी से कही गयी गजल है ये ! मजा आ गया ! लिखते रहिये । कुंवर बैचेन जी की याद आ गई :)
सादर।।
फूलों की बात समझें, कहाँ हैं वो देवता?
ReplyDeleteये दानवों का दौर है; पत्थर समेटिये।
सुभान अल्लाह....बेहतरीन ग़ज़ल....क्या ये अहमद नदीम कासमी साहेब का कलाम है?
नीरज
नीरज साहब,
ReplyDelete'नदीम' मेरा तख़ल्लुस है हालांकि
इसका प्रयोग मैं यदाकदा ही करता हूं
सादर,
अमर
अमरजी,
ReplyDeleteतारीफ़ के लिये अल्फ़ाज़ खोज रहा था पर फिर सोचा आखिर किस शेर की तारीफ़ की जाये और किसे छोड़ा जाये. अभी तक इसी उधेड़बुन में हूँ.
आप सभी का हार्दिक आभार।
ReplyDeleteविवेक जी! आपका दिल बहुत बड़ा है।वहीं सब समा जाएगा। ट्रक की आवश्यकता नहीं पड़ेगी।:)