Monday, November 24, 2008

सपनों का

सपनों का अब निगाह से मंज़र समेटिये,
सूरज की आँख खुल गई, बिस्तर समेटिये

दे दीजियेगा बाद में औरों को मशविरा;
फ़िलहाल अपना गिरता हुआ घर समेटिये

फूलों की बात समझें, कहाँ हैं वो देवता?
ये दानवों का दौर है; पत्थर समेटिये

जब से गए हैं आप, बिखर सा गया हूँ मैं,
खो जाउंगा हवाओं में, आकर समेटिये

कुछ आँधियों ने कर दिया जिसको तितर-बितर,
उठिए 'नदीम' साब! वो लश्कर समेटिये.

9 comments:

  1. manzil e nisha ka bas yuhi dil mein aaya khayal to kavita mein utar gaya,shayad manzil ki chah mein tha uska arth

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  2. kya baat hai, kya baat hai!
    chain se baith ke comment likhna padega shaam ko :)
    Toh yeh gul khil raha tha anupam sa, isliye itni der laga dee thee aapne :)

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  3. जो जो बोला था सब समेट लिया . काफी ज्यादा सामान होगया . एक ट्रक और समेट लूँ ? :)

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  4. बहुत बढिया गजल है।बधाई\
    सपनों का अब निगाह से मंज़र समेटिये,
    सूरज की आँख खुल गई, बिस्तर समेटिये।

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  5. ये लीजिये चैन से बैठ कर भी शब्द नहीं मिल रहे हैं कि कैसे प्रसंशा की जाये । इसलिये फिर वही -- क्या बात है, क्या बात है !
    वैसे तो आप हमेशा ही उम्दा लिखते हैं, पर जानते हैं कि आज की गजल में क्या फर्क है । (मेरी अल्पबुद्धि से) : इस गजल में सारे भाव हैं, केवल कडुवा सत्य नहीं , इसमें शरारत भी है। जितनी औरों से कही गयी, उतनी खुद से भी से कही गयी गजल है ये ! मजा आ गया ! लिखते रहिये । कुंवर बैचेन जी की याद आ गई :)
    सादर।।

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  6. फूलों की बात समझें, कहाँ हैं वो देवता?
    ये दानवों का दौर है; पत्थर समेटिये।
    सुभान अल्लाह....बेहतरीन ग़ज़ल....क्या ये अहमद नदीम कासमी साहेब का कलाम है?
    नीरज

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  7. नीरज साहब,
    'नदीम' मेरा तख़ल्लुस है हालांकि
    इसका प्रयोग मैं यदाकदा ही करता हूं
    सादर,
    अमर

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  8. अमरजी,

    तारीफ़ के लिये अल्फ़ाज़ खोज रहा था पर फिर सोचा आखिर किस शेर की तारीफ़ की जाये और किसे छोड़ा जाये. अभी तक इसी उधेड़बुन में हूँ.

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  9. आप सभी का हार्दिक आभार।
    विवेक जी! आपका दिल बहुत बड़ा है।वहीं सब समा जाएगा। ट्रक की आवश्यकता नहीं पड़ेगी।:)

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