Monday, November 10, 2008

सरदी में

सरदी में गुनगुनी धूप सी, ममता भरी रजाई अम्मा,
जीवन की हर शीत-लहर में बार-बार याद आई अम्मा।

भैय्या से खटपट, अब्बू की डाँट-डपट, जिज्जी से झंझट,
दिन भर की हर टूट-फूट की करती थी भरपाई अम्मा।

कभी शाम को ट्यूशन पढ़ कर घर आने में देर हुई तो,
चौके से देहरी तक कैसी फिरती थी बौराई अम्मा।

भूला नहीं मोमजामे का रेनकोट हाथों से सिलना;
और सर्दियों में स्वेटर पर बिल्ली की बुनवाई अम्मा।

बासी रोटी सेंक-चुपड़ कर उसे पराठा कर देती थी,
कैसे थे अभाव और क्या-क्या करती थी चतुराई अम्मा।
(आलोक श्रीवास्तव की ज़मीन और बिटिया स्तुति की
ज़िद पर)

4 comments:

  1. वाह! वाह! अमर जी,
    क्या खूब लिखा है!
    बधाई !
    ================
    अगर जो ये सब पढ वो पातीं
    तो भी होतीं शरमाई अम्मा,
    हंस कर कहतीं,"ले गये वक्त की
    करे तेरी भरपाई अम्मा ?
    देख तो कितना काम है बाकी
    और तूने धर-पकडाई अम्मा !"
    -शार
    ==================
    निदा फ़ाज़ली जी की रचना याद आ गई!

    "बेसन की सोंधी रोटी पे खट्टी चटनी जैसी माँ "

    आपने पढी है? कविता कोश पे है।
    सादर ।।

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  2. वाह ! वाह ! वाह !
    जैसे माँ की ममता मन को सहला दुलार जाती है,ये पंक्तियाँ ऐसे ही मन सहला कर विभोर कर गई.
    बहुत ही सुंदर...साधुवाद.

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  3. बासी रोटी सेंक-चुपड़ कर उसे पराठा कर देती थी,
    कैसे थे अभाव और क्या-क्या करती थी चतुराई अम्मा।
    बहुत ही सुंदर भाव , मुझे सुबह सुबह भुख लग जाती थी, तो मां यही करती थी,बीती यादे याद दिला दी

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  4. बहुत बढ़िया, इस रचना को मैं "माँ"( शास्त्री जी का ब्लाग, जिस पर मैं एक लेखक हूँ) पर प्रकाशित करना चाहता हूँ ! कृपया स्वीकृति दें !

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