Thursday, November 27, 2008

तेरी ज़िद

तेरी ज़िद, घर-बार निहारूं;
मन बोले संसार निहारूं।

पानी, धूप, अनाज जुटा लूं;
फिर तेरा सिंगार निहारूं।

दाल खदकती, सिकती रोटी,
इनमें ही करतार निहारूं।

बचपन की निर्दोष हँसी को ,
एक नहीं , सौ बार निहारूं।

तेज़ धार औ भंवर न देखूं,
मैं नदिया के पार निहारूं.

9 comments:

  1. बचपन की निर्दोष हँसी को ,
    एक नहीं , सौ बार निहारूं।

    बहुत खूब कहा आपने

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  2. वाह बहुत सशक्त रचना. मेरी बधाई स्वीकार करें.

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  3. धन्यवाद एकअच्छी कविता के लिये

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  4. शायरी होती
    बात वजनदार!
    दिखे छोटी!
    नायाब मोती!
    ----
    आप लिखते रहिये, हम पढते जा रहे हैं, अमर जी,

    सादर।।

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  5. दाल खदकती, सिकती रोटी,
    इनमें ही करतार निहारूं।

    सादर नमन

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  6. बेहतरीन रचना के लिये बधाई स्वीकारें

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  7. ab naya kab likhenge?
    saadar ...

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