तेरी ज़िद, घर-बार निहारूं;
मन बोले संसार निहारूं।
पानी, धूप, अनाज जुटा लूं;
फिर तेरा सिंगार निहारूं।
दाल खदकती, सिकती रोटी,
इनमें ही करतार निहारूं।
बचपन की निर्दोष हँसी को ,
एक नहीं , सौ बार निहारूं।
तेज़ धार औ भंवर न देखूं,
मैं नदिया के पार निहारूं.
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
waah bahut khub
ReplyDeleteबचपन की निर्दोष हँसी को ,
ReplyDeleteएक नहीं , सौ बार निहारूं।
बहुत खूब कहा आपने
bahut khoob! achchhe kavita hai.
ReplyDeleteवाह बहुत सशक्त रचना. मेरी बधाई स्वीकार करें.
ReplyDeleteधन्यवाद एकअच्छी कविता के लिये
ReplyDeleteशायरी होती
ReplyDeleteबात वजनदार!
दिखे छोटी!
नायाब मोती!
----
आप लिखते रहिये, हम पढते जा रहे हैं, अमर जी,
सादर।।
दाल खदकती, सिकती रोटी,
ReplyDeleteइनमें ही करतार निहारूं।
सादर नमन
बेहतरीन रचना के लिये बधाई स्वीकारें
ReplyDeleteab naya kab likhenge?
ReplyDeletesaadar ...