Monday, September 6, 2010

जीवन भर

जीवन भर पछताए कौन 
ऐसी लगन लगाए कौन


बैद  नहीं उपचार नहीं
फिर ये रोग लगाए कौन 


तू आयेगा - झूठी बात 
पर मन को समझाए कौन


उस नगरी में सारे सुख
उस नगरी में जाए कौन


मन ही मन का बैरी है 
और भला भरमाये कौन 

Wednesday, August 11, 2010

यों तो संबंध

यों तो सम्बन्ध सहज से ही ज़माने से रहे
मन में अकुलाते मगर प्रश्न पुराने से रहे

द्वारिका जा के ही मिल आओ अगर मिलना है
अब किशन लौट के गोकुल में तो आने से रहे

बावरा बैजू भी शामिल हुआ नौरतनों में 
और फिर सारी उम्र होश ठिकाने से रहे


प्यासे खेतों की पुकारों में असर हो शायद
मानसूनों को समंदर तो बुलाने से रहे


सूखी नदियों पे बनाए हैं सभी पुल तुमने
अगले सैलाब में ये काम तो आने से रहे

Friday, June 4, 2010

क्या कर लोगे ?

गेहूं,चने,ज्वार मेरे तुम काट ले गये
अब मैनें सपने बोये हैं;- क्या कर लोगे ?
पण्डित जी, पैलाग, चलो बस रस्ता नापो
होरी अब गोदान नहीं, कुछ और करेगा
भेद खुल चुका धरम-करम और पुन्य-पाप का
जो करना है आज,अभी, इस ठौर करेगा।
लेखपाल जी, मेरे सारे खेत बिक गये
अब बोलो मेरा कैसे नुकसान करोगे?
मुझे खतौनी खसरा कुछ भी नहीं चाहिये
मैं तो अब नंगा हूं; मुझसे क्या ले लोगे?
हवलदार जी मेरा मूंगफली का ठेला
छूट गया है- क्या छीनोगे क्या खाओगे?
सचमुच बहुत तरस आता है तुम लोगों पर
मैं न रहा तो तुम भी भूखे मर जाओगे।
अब मैं चौराहे पर हूं- वो भी कितने दिन!
आज नहीं तो कल रस्ता तय कर ही लूंगा;
और चल पड़ा जब तो रुकने की तो छोड़ो;
ये न समझना पीछे मुड़ कर भी देखूंगा।

Thursday, May 13, 2010

हों ॠचायें

हों  ॠचायें वेद की  या आयतें  क़ुरआन  की
खो गई इन जंगलों में अस्मिता इन्सान की

कैसी  तनहाई!  मेरे घर  महफ़िलें  सजती  हैं रोज़
सूर, तुलसी, मीर,ग़ालिब, जायसी, रसखान की

कितने होटल, मॉल,मल्टीप्लेक्स उग आये यहां
कल तलक हंसती थीं इन खेतों में फ़सलें धान की

इस कठिन बनवास में मीलों भटकना है अभी
तुम कहां तक साथ दोगी; लौट जाओ  जानकी

तुम भी कैसे बावले हो; अब तो कुछ समझो नदीम
अजनबी आँखों में मत खोजो चमक पहचान की

Sunday, April 18, 2010

बंजरों में बहार

बंजरों  में  बहार  कैसे  हो
ऐसे मौसम में प्यार कैसे हो

ज़िन्दगी  जेठ  का  महीना  है
इसमें रिमझिम फुहार कैसे हो

कोई वादा कोई उमीद तो हो
बेसबब  इन्तज़ार  कैसे  हो

आप बोलें तो फूल झरते हैं
आपका  ऐतबार  कैसे  हो

जिनका सब कुछ इसी किनारे है 
ये  नदी  उनसे  पार  कैसे  हो। 

Saturday, February 20, 2010

लम्बी-चौड़ी

लम्बी-चौड़ी ताने मत
हमें बावला  जाने मत

हमें आज की बात बता
किस्से सुना पुराने मत

रोटी का जुगाड़ बतला
वेद-कुरान बखाने  मत

चाकर ही तो है उनका
ख़ुद को मालिक माने मत

तू भी तो हम जैसा है
आज भले पहचाने मत

Tuesday, February 9, 2010

अपनी धरती

अपनी धरती के साथ रहता हूं

उसके सब धूप-ताप सहता हूं


पूस जैसा कभी ठिठुरता हूं

और कभी जेठ जैसा दहता हूं

 

सब परिन्दों के साथ उड़ता हूं

सारी नदियों के साथ बहता हूं

 

जागता हूं सुबह को सूरज सा

शाम को खण्डहर सा ढहता हूं

 

इसमें तुम भी हो और ज़माना भी

यूं तो मैं अपनी बात कहता हूं