Tuesday, January 4, 2011

जीवन में

जीवन में संबंधों का कुछ अजब विरोधाभास रहा
हर घनिष्ठता में शामिल एक दूरी का एहसास रहा 

कोई पुराना प्यारा चेहरा, कोई पुरानी याद न थी
बचपन की गलियों में जाकर भी मन बहुत उदास रहा

जनम-जनम का अपना नाता, हम-तुम कभी न बिछड़ेंगे
तुम भी यूं ही कहते थे, हमको भी कब विश्वास रहा 

रामकथा का सार न बदला वाल्मीकि से तुलसी तक
राम रहे राजा, सीता के हिस्से में बनवास रहा 

धनी प्रवासी पुत्र सरीखा सुख जीवन भर दूर रहा
दुःख अनपढ़ बेरोज़गार बेटे सा अपने पास रहा 

5 comments:

  1. बहुत सुंदर रचना जी, धन्यवाद

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  2. इस बार आपने सारी टिप्पणियां छीन लीं

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  3. इस बार आपने सारे शब्द समेट लिये- कुछ कहने को छोड़ा कहाँ.

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  4. वाह वाह , दिल पर छाप छोड़ गयी ये ग़ज़ल ......

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