Saturday, January 15, 2011

कितने दिन

कितने दिन दुस्वप्न सरीखे लौट-लौट कर आओगे
ओ अभिशप्त अतीत भला कब वर्तमान से जाओगे

तिरस्कार और उपहासों से हमको तो चुप कर दोगे 
पर अपने मन की सोचो उसको कैसे बहलाओगे   

पार उतर कर तुमने अपनी नाव जला तो डाली है
कभी लौटना पड़ा अगर तो सोचो कैसे आओगे

बूढ़ी आँखें रास्ता तकते-तकते पथरा जायेंगी
तुम भी लौटेगे ज़रूर पर उस दिन इन्हें न पाओगे

इन शरीफ़ लोगों की बस्ती से नदीम प्रस्थान करो
यहां अगर ठहरे तो तुम भी इन जैसे हो जाओगे 

5 comments:

  1. पहली बार आपके ब्लॉग पर आना हुआ।
    चकित हूं, कितना सुंदर लिखते हैं आप।
    मन मुग्ध हो गया।
    बहुत सारी पिछली रचनाओं को भी पढ़ लिया।
    सब सुंदर, अति सुंदर।

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  2. कितने दिन दुअस्वप्न सरीखे लौट,लौट कर आओगे
    ओ अभिश्प्त अतीत भला कब वर्तमान से जाओगे

    सुन्दर

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  3. zindgi ki ksh.m.ksh ko
    bahut steek alfaaz mei piro kar
    bahut bahut achhee rachnaa kahee hai...

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  4. पार उतर कर तुमने...
    बूढ़ी आँखें....
    बहुत सुन्दर नदीम जी
    सादर

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  5. kya hua...kalam kho gayi hai kya aapki Amar Da?

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