Sunday, July 13, 2008

गीत कुछ उल्लास के

गीत कुछ उल्लास के मन बावरा गाता तो है ;
पर उसी पल कंठ भी स्वयमेव भर आता तो है।

छोड़ कर जिस विश्व को मैं भाग आया हूँ यहाँ
आज भी उस विश्व से मेरा कोई नाता तो है ।

ये घुटन, ये उलझनें, ये वंचना, ये वेदना;

इन सभी के बीच मन निर्दोष घबराता तो है ।

क्या न जाने भेद है जो प्यास यह बुझती नहीं;

नित्य प्रति ही नीर नयनों से बरस जाता तो है।

मानता हूँ अंश हूँ मैं भी व्यवस्था का ; मगर
इस व्यवस्था से ह्रदय विद्रोह कर जाता तो है।

शब्द में अनुवाद मेरी भावना का हो, न हो;
मौन भी मेरा ह्रदय के भेद कह जाता तो है ।

जिस दिशा में लक्ष्य या गंतव्य की सीमा नहीं
उस दिशा की और यह उन्माद ले जाता तो है।

उलझनों की झाडियाँ हैं; मुश्किलों के हैं पहाड़,
फ़िर भी इनके बीच से एक रास्ता जाता तो है।

हास में, परिहास में, आनंद में , उल्लास में,
सम्मिलित हूँ, किंतु फ़िर भी प्राण अकुलाता तो है।

Saturday, July 12, 2008

जब से इंसान

जब से इंसान हो गए यारो
हम परेशान हो गए यारो।

बेडी़ पावों की,तौक़ गर्दन का,
दीन-ओ-ईमान हो गए यारो।

कैस कुछ कह उठा तो अहले खि़रद,

कितने हैरान हो गए यारो।

अब अवध में नहीं कोई शम्बूक,
सारे कुर्बान हो गए यारो।

कोई सुनता नहीं किसी की पुकार,
लोग भगवान हो गए यारो।

Friday, July 11, 2008

दर्द हद से

दर्द हद से गुज़र गया आख़िर
सैल दुःख का उतर गया आख़िर.

जिसकी ज़िन्दादिली का चर्चा था
थक के वो शख़्स मर गया आख़िर.

आपकी बज़्म से दिल-ऐ-मासूम
हो के मायूस घर गया आख़िर.

जंगली झाड़ियों में सुर्ख गुलाब
यूं ही गुमनाम झर गया आख़िर.

ख़ुद को वो आफ़ताब कहता था!

कुछ शरारों से डर गया आख़िर।

Tuesday, July 8, 2008

जब भी चाहा

जब भी चाहा तुमसे थोड़ी प्यार की बातें करूं

पास बैठूं दो घड़ी,श्रृंगार की बातें करूं।



वेदना चिरसंगिनी हठपूर्वक कहने लगी

आंसुओं की,आंसुओं की धार की बातें करूं।



देखता हूँ रुख ज़माने का तो ये कहता है मन

भूल कर आदर्श को व्यवहार की बातें करूं।



आप कहते हैं प्रगति के गीत गाओ गीतकार;

सत्य कहता है दुखी संसार की बातें करूं।



चाटुकारों के नगर में सत्य पर प्रतिबन्ध है।

किस लिए अभिव्यक्ति के अधिकार की बातें करूं।



इस किनारे प्यास है; और उस किनारे है जलन

क्यों न फिर तूफ़ान की मंझधार की बातें करूं.

Friday, July 4, 2008

चूक हो जाए

चूक हो जाए न शिष्टाचार में
दुम दबा कर जाइए दरबार में

कुर्सियों के कद गगनचुम्बी हुए
आदमी बौना हुआ आकार में 

छोड़ जर्जर नाव सीखा तैरना;
वरना हम भी डूबते मंझधार में

रोग ही बेहतर था सब कहने लगे,

हो गई ऎसी दशा उपचार में

भूमिका में ख़ूब था जोश-ओ-खरोश,
पड़ गए कमज़ोर उपसंहार में 

Thursday, July 3, 2008

क्या सफर था!

क्या सफर था! राह-ओ-मंजिल का निशाँ कोई न था
काफिला कोई न था; और कारवाँ कोई न था.

हमने ही अपने तसव्वुर से तुझे इक शक्ल दी.
हम न थे तो तू; तेरा नाम-ओ-निशाँ कोई न था.

कैसा जंगल था जहाँ वनवास पर भेजे गए
हर तरफ़ अशजार थे, साया वहाँ कोई न था.

दिल के दरवाज़े पे दस्तक बारहा होती रही
हमसे मिलने को मगर आया वहाँ कोई न था.

आईनों के शहर में हर सिम्त हम थे;सिर्फ़ हम.
हम चले आए तो हम जैसा वहाँ कोई न था.

Wednesday, July 2, 2008

साँस ही संत्रास है

साँस ही संत्रास है तो राम जाने
हर हँसी उपहास है तो राम जाने.

मरुस्थल में जल दिखे,अच्छा शकुन है
और यदि आभास है,तो राम जाने.

अब कोई अवतार रावण का न होगा;
राम को विश्वास है तो राम जाने.

इस समंदर में हलाहल है,अमृत है;
जल की तुझको प्यास है तो राम जाने.

कोई वैदेही भला क्यों साथ भटके!
राम का वनवास है, तो राम जाने.