Saturday, August 9, 2008

पसीने के

गए वो दिन कि ज़ुल्फ़ों-गेसुओं में रास्ता खोजो।
पसीने के, धुएं के,जंगलों में रास्ता खोजो;

अमावस के अँधेरों में कभी सूरज नहीं दिखता;
दियों के,जुगनुओं के हौसलों में रास्ता खोजो।

ये माना हर नदी नीले समंदर तक नहीं जाती;
मगर ये क्या!कि इन अँधे कुओं में रास्ता खोजो।

पुराने नाख़ुदाओं के भरोसे डूबना तय है;
ख़ुद अपने बाज़ुओं की कोशिशों में रास्ता खोजो।

न कोई नक्श-ए-पा है,और न संग-ए-मील है कोई;
मुसाफ़िर गुलशनों के, ख़ुशबुओं में रास्ता खोजो।

Friday, August 8, 2008

जो कुछ भी

जो कुछ भी करना है, कर ले;
इसी जनम में जी ले, मर ले।

अवतारों की राह देख मत;
छीन-झपट कर झोली भर ले।

सीख तैरना अपने बल पर;
डूबेगी यह नाव; उतर ले।

सच में लगा झूठ के पहिये;
ये बोझा मत अपने सर ले।

वेद-क़ुरानों के बदले में

गिनती के ‘ढाई आखर’ ले।

Thursday, August 7, 2008

अबकी बार

अबकी बार दिवाली में जब घर आएँगे मेरे पापा
खील, मिठाई, चप्पल, सब लेकर आएँगे मेरे पापा।

दादी का टूटा चश्मा और फटा हुआ चुन्नू का जूता,
दोनों की एक साथ मरम्मत करवाएँगे मेरे पापा।

अम्मा की धोती तो अभी नई है; होली पर आई थी;
उसको तो बस बातों में ही टरकाएंगे मेरे पापा।

जिज्जी के चेहरे की छोड़ो, उसकी आंखें तक पीली हैं;
उसका भी इलाज मंतर से करवाएँगे मेरे पापा।

बड़की हुई सयानी, उसकी शादी का क्या सोच रहे हो?
दादी पूछेंगी; और उनसे कतराएंगे मेरे पापा।

बौहरे जी के अभी सात सौ रुपये देने को बाकी हैं;
अम्मा याद दिलाएगी और हकलाएंगे मेरे पापा।

Wednesday, August 6, 2008

कह गया था

कह गया था, मगर नहीं आया;
वो कभी लौट कर नहीं आया।

क़ाफिले में तमाम लोग थे पर,
बस वही हमसफ़र नहीं आया।

रेल तो टर्मिनस पे आ  पहुंची;
किंतु मेरा शहर नहीं आया।

ऐसा क्यों लगता है कि जैसे वो,
आ तो सकता था, पर नहीं आया।

एक मेरी बिसात क्या, सुख तो
जाने कितनों के घर नहीं आया।

Tuesday, August 5, 2008

बचपन

भोर सकारे जैसा बचपन;
ये उजियारे जैसा बचपन।

प्यासी आंखें, सूखा चेहरा,
झील किनारे जैसा बचपन।

मत्था टेके; रोटी मांगे;
ये गुरुद्वारे जैसा बचपन

काँटे पहने भटक रहा है,
ये गुब्बारे जैसा बचपन।

कचरा बीन रहा सड़कों पर
चन्दा-तारे जैसा बचपन।

Monday, August 4, 2008

रिक्शे वाले

मेरे घर के बाहर अक्सर आ जाते हैं रिक्शे वाले;
सुख-दुख की गपशप से दिल बहला जाते हैं रिक्शे वाले।

जेठ माह की दोपहरी में जब कर्फ़्यू सा लग जाता है,
अमलतास की छाया में सुस्ता जाते हैं रिक्शे वाले।

गंगा-पार, बदायूं, छपरा, भागलपुर, और बर्दवान के,
कितने किस्से आपस में दोहरा जाते हैं रिक्शे वाले।

रिक्शा धोना, कुछ पल सोना, बीड़ी पीना, कपड़े सीना-
कितने सारे काम यहां निपटा जाते हैं रिक्शे वाले।


सड़कों के गड्ढे, टायर के बढ़ते दाम, पुलिस की गाली,
सब पर अपनी-अपनी राय बता जाते हैं रिक्शे वाले।

मिले सवारी तो झटपट पैसे तय कर के चल पड़ते हैं;
वरना दो-दो घण्टे यहीं बिता जाते हैं रिक्शे वाले।

Sunday, August 3, 2008

दाल-रोटी

पेट भरते हैं दाल-रोटी से।
दिन गुज़रते हैं दाल-रोटी से।

दाल रोटी न हो, तो जग सूना ;
जीते-मरते हैं दाल-रोटी से।

इतने हथियार,इतने बम-गोले!
कितना डरते हैं दाल-रोटी से!

कैसे अचरज की बात है यारो!
लोग मरते हैं दाल-रोटी से।

जो न सदियों में हो सका,पल में
कर गुज़रते हैं दाल-रोटी से।

लोग दीवाने हो गये हैं नदीम,
खेल करते हैं दाल-रोटी से।