Monday, August 4, 2008

रिक्शे वाले

मेरे घर के बाहर अक्सर आ जाते हैं रिक्शे वाले;
सुख-दुख की गपशप से दिल बहला जाते हैं रिक्शे वाले।

जेठ माह की दोपहरी में जब कर्फ़्यू सा लग जाता है,
अमलतास की छाया में सुस्ता जाते हैं रिक्शे वाले।

गंगा-पार, बदायूं, छपरा, भागलपुर, और बर्दवान के,
कितने किस्से आपस में दोहरा जाते हैं रिक्शे वाले।

रिक्शा धोना, कुछ पल सोना, बीड़ी पीना, कपड़े सीना-
कितने सारे काम यहां निपटा जाते हैं रिक्शे वाले।


सड़कों के गड्ढे, टायर के बढ़ते दाम, पुलिस की गाली,
सब पर अपनी-अपनी राय बता जाते हैं रिक्शे वाले।

मिले सवारी तो झटपट पैसे तय कर के चल पड़ते हैं;
वरना दो-दो घण्टे यहीं बिता जाते हैं रिक्शे वाले।

4 comments:

  1. बहुत ही सुन्दर लिखा हे आप ने इन की जिन्दगी के बारे, हम भी तो रिक्शे वाले ही हे, कभी कोई हमारे रिकशे मे तो कभी कोई बचपन से बुडापे तक , कभी कभार हमारा रिकशा बीच मे ही बिगड जाता हे, कभी उम्र के आखरी मे हम थक जाते हे ,धन्यवाद

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  2. रिक्शे वालों की व्यथा को बखूबी अभिव्यक्त किया है।बहुत बढिया रचना है।

    सड़कों के गड्ढे, टायर के बढ़ते दाम, पुलिस की गाली,
    सब पर अपनी-अपनी राय बता जाते हैं रिक्शे वाले।

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  3. जनवाद आपकी इस रचना का स्वर है। रिक्शावालों की समस्याओं, उनके दर्द और उनकी मुस्कानों को खूब शब्द दिये हैं आपने। आपने बेहद प्रभावित किया...


    ***राजीव रंजन प्रसाद

    www.rajeevnhpc.blogspot.com
    www.kuhukakona.blogspot.com

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  4. बहुत बेहतरीन तरह से बुना है रिक्शेवालों की दास्तान को. वाह!

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