Tuesday, February 9, 2010

अपनी धरती

अपनी धरती के साथ रहता हूं

उसके सब धूप-ताप सहता हूं


पूस जैसा कभी ठिठुरता हूं

और कभी जेठ जैसा दहता हूं

 

सब परिन्दों के साथ उड़ता हूं

सारी नदियों के साथ बहता हूं

 

जागता हूं सुबह को सूरज सा

शाम को खण्डहर सा ढहता हूं

 

इसमें तुम भी हो और ज़माना भी

यूं तो मैं अपनी बात कहता हूं

6 comments:

  1. बहुत सुन्दर रचना धन्यवाद्

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  2. बहुत ही सुंदर रचना !!

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  3. जब कवि अपनी बात कहता हो और वो ज़माने की बन जाती है तो कविता सार्थक हो उठती है। आपकी रचनाओं मे यही विशेषता है कि वो आपकी कलम से निकलती है और सबके दिल मे बहने लगती है।

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  4. ओह ये बहद ख़ूबसूरत...
    एक बात कहना चाहती हूँ... मुझे खुशी है कि आज इसे तसल्ली से पढ़ रही हूँ... जैसे घर लौटते ही किसी को सबसे पहले अपने पसंदीदा लोगों से मिलना अच्छा लगता है ... वैसे ही लेखन-पाठन की तरफ लौटते हुए आप की ग़ज़लें पढ़ने में एक जानी पहचानी सी ख़ुशी मिल रही है... आपका धन्यवाद इतना अच्छा लिखने के लिए ... अब आप गुस्सा करेंगे और इस कमेन्ट को गोल कर देंगे :) :)
    "सब परिंदों के साथ उड़ता हूँ, सारी नदियों के साथ बहता हूँ" ... ये मैंने रखा लिया है अपने पास.. मेरा हुआ ये शेर...ये इतना ख़ूबसूरत लगा कि इसके बारे में कुछ और नहीं कहना चाहती!!
    "अपनी धरती के साथ रहता हूँ, उसके सब धूप-ताप सहता हूँ"... कितना बहुआयामी शेर है ये...बहुत सुन्दर!
    "इसमें तुम भी हो और ज़माना भी, यूँ तो मैं अपनी बात कहता हूँ "... इससे गुरुजी के लेखन की याद आ गई! वो भी तो हमेशा यूँ ही कहा करते हैं.
    "कभी पूस सा ..." बहुत ग्राफिक सा शेर है... जाने इस 'पूस' शब्द में क्या बात है, सुनते ही प्रेमचंद्र याद आ जाते हैं... "जेठ सा" दहने की बात पे मुझे झट से यकीन हो गया दादा! :)
    "जागता हूँ सुबह को सूरज सा" ये बहुत सुन्दर !
    "शाम को खँडहर सा ढहता हूँ..." ये आपने क्यों लिखा मिसरा ? ... और सूरज के साथ खँडहर... ये क्या तुलना हुई दादा! दर्द है शेर में ...सो चिंता हुई :(
    कुला मिला के एक ख़ूबसूरत ग़ज़ल. आभार!

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