Saturday, November 14, 2015

माना  मद्धम  है  थरथराती  है 
फिर भी इक लौ तो झिलमिलाती है 

मैं अकेला कभी नहीं गाता 
वो मेरे साथ गुनगुनाती है 

हां ! ये सच है के कुछ दरख़्त कटे 
एक बुलबुल तो फिर भी गाती है 

मैं अकेला कहां ! मेरे मन में 
एक तस्वीर मुस्कराती है 

आंख कितनी ही मूंद ले कोई 
ज़िंदगी आइना दिखाती है 

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