Saturday, November 14, 2015

माना  मद्धम  है  थरथराती  है 
फिर भी इक लौ तो झिलमिलाती है 

मैं अकेला कभी नहीं गाता 
वो मेरे साथ गुनगुनाती है 

हां ! ये सच है के कुछ दरख़्त कटे 
एक बुलबुल तो फिर भी गाती है 

मैं अकेला कहां ! मेरे मन में 
एक तस्वीर मुस्कराती है 

आंख कितनी ही मूंद ले कोई 
ज़िंदगी आइना दिखाती है 

Saturday, October 24, 2015

कब तलक चाँद सितारों को निहारा जाये
कुछ समय गलियों मुहल्लों में गुज़ारा जाये

कोई अवतार न आयेगा मसीहा कोई 
चलिये ख़ुद अपने मुक़द्दर को संवारा जाये 

तेरे कूचे में भी हर मोड़ पे रहज़न ही मिले 
कोई फिर क्यों तेरी गलियों में दुबारा जाये 

लोग आते भी हैं और साथ भी चल पड़ते हैं 
शर्त  बस  ये  है  सलीक़े  से  पुकारा  जाये 

इन ख़ुदाओं की ख़ुदाई का ज़माना  बीता  
खींच कर अब इन्हें धरती पे उतारा  जाये 

Wednesday, September 30, 2015

जनाज़े अपने हिस्से में

जनाज़े अपने हिस्से में उधर बारात का मौसम
रहेगा कितने दिन इस बेतुकी सी बात का मौसम 
दिये की एक मद्धम लौ के आगे थरथराता है 
ये आंधी का ये अंधड़ का ये झंझावात का मौसम
जिन्हें मदहोश कर देती हैं सावन की फुहारें वे 
टपकती छत के नीचे देख लें बरसात का मौसम
सुबह कब आयेगी जब आयेगी तब आयेगी साहब
अभी तक तो नज़र में है मुसलसल रात का मौसम
खुदाबंदो छुपोगे किन गुफाओं में जब आयेगा 
हमारी जीत का मौसम तुम्हारी मात का मौसम


Tuesday, September 4, 2012

आंख के आकाश पर

आंख  के आकाश पर बदली तो छाई है ज़रूर 
हो न हो कल फिर किसी की याद आई है ज़रूर

उड़ चला जिस पल परिंदा कुछ न बोली चुप रही 
डाल बूढ़े नीम की पर थरथराई है ज़रूर 

मयकशों ने तो संभल कर ही रखे अपने क़दम 
वाइज़ों की चाल अक्सर डगमगाई है ज़रूर 

लोग मीलों दूर जा कर फूंक आये बस्तियां 
आंच पर थोड़ी तो उनके घर भी आई है ज़रूर 

हिटलर-ओ-चंगेज़ के भी दौर आये पर नदीम 
ज़िन्दगी उनसे उबर कर मुस्कराई है ज़रूर  


Monday, July 23, 2012

उनकी महफ़िल है

उनकी महफ़िल है फ़क़त हंसने हंसाने के लिये
कौन जाये दर्द की गाथा सुनाने के लिये

जेब में मुस्कान रख कर घूमता है आदमी
जब जहां जैसी ज़रूरत हो दिखाने के लिये

ले गये कमज़र्फ हंस हंस कर वफ़ाओं की सनद
हम सरीखे ही बचे हैं आज़माने के लिये

गाँव में क्या था कि रुकते खेत घर सब बिक चुके
अब भटकते हैं शहर में आब-ओ-दाने के लिये

आज फिर राजा को नंगा कह गया सरकश कोई
फिर से हैं तैयारियां मकतल सजाने के लिये  

Monday, April 30, 2012

दर्द आँखों में नहीं 

दर्द आँखों में नहीं दिल में दबाए रखना
इस ख़ज़ाने को ज़माने से छुपाए रखना

हमने बोये हैं अंधेरों में सदा धूप के बीज
हमको आता है उमीदों को जगाए रखना

आज के ख़त ये कबूतर ही तो पहुंचाएंगे कल
इन परिंदों को धमाकों से बचाए रखना 

सारे रिश्तों की हक़ीक़त न परखने लगना
कुछ भरम जीने की ख़ातिर भी बचाए रखना

उसके आने का भरोसा तो नहीं फिर भी नदीम
इक दिया आस का देहरी पे जलाए रखना 


Monday, August 8, 2011

किसे अजनबी कहें

किसे अजनबी कहें किसे अनजाना मन
जब हर शख्स लगे जाना-पहचाना  मन

पता   पूछते   हैं   भोले  बस्ती   वाले
बंजारों का कैसा  ठौर-ठिकाना    मन   

सुख आया दो पल ठहरा फिर लौट गया  
दुःख ने ही सीखा है साथ निभाना   मन

जिस मूरत को छुआ वही पत्थर निकली
धीरे-धीरे   टूटा   भरम   पुराना   मन

यहां ठहरना अपने बस की बात कहां
लगा रहेगा यूं ही आना-जाना    मन 

सन्नाटों में उम्र बिताई है फिर भी
सन्नाटों के आदी मत  हो जाना मन

मंजिल एक छलावा ही तो है तुम तो
चलते-चलते राहों में खो जाना  मन