Saturday, August 30, 2008

बाग़ों में

बाग़ों में प्लॉट कट गए, अमराइयाँ कहाँ!

पूरा बरस ही जेठ है, पुरवाइयाँ कहाँ!


उस डबडबाई आँख मे उतरे तो खो गए;

सारे समंदरों में वो गहराइयाँ कहाँ!


सरगम का, सुर का, राग का, चरचा न कीजिये;

डी जे की धूमधाम है; शहनाइयाँ कहाँ!


क़ुरबानियों में कौन सी शोहरत बची है अब?

और बेवफ़ाइयों में भी रुसवाइयाँ कहाँ!


कमरे से एक बार तो बाहर निकल नदीम;

तनहा दिलों की भीड़ है, तनहाइयाँ कहाँ!

2 comments:

  1. उस डबडबाई आँख मे उतरे तो खो गए;
    सारे समंदरों में वो गहराइयाँ कहाँ!
    सुभान अल्लाह...बेहतरीन शेर...वाह..वा....
    नीरज

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  2. लाज़वाब ग़ज़ल.
    तन्हा दिलों की भीड़ और
    तन्हाई के महीन फासले पर
    अल्फाज़ इस तरह भी
    नमूंदार हो सकते हैं !
    वाह ! क्या बात है !.......शुक्रिया.
    ============================
    डॉ.चन्द्रकुमार जैन

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