Monday, December 29, 2008

राजा का आसन

राजा का आसन डोला;
कहीं किसी ने  सच बोला!

इस वासंती मौसम  में,
किसने ये पतझर घोला?

दानिशवर ख़ामोश हुए;
जब मजनूं ने मुंह खोला।

जम कर लड़ा लुटेरों से
जिसका ख़ाली था झोला।

सारा जंगल सूखा है;
तू इक चिंगारी तो ला।

11 comments:

  1. bahut sahi bahut khub

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  2. बहुत हे सुंदर कविता है ये...बहुत खूब....

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  3. एक दम यथार्थ कविता है। चंद छंदों में ही समाज का यथार्थ रख दिया है आपने।

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  4. बहुत सुन्दर लिखी आप ने कविता...सारा जंगल सूखा है;
    तू इक चिंगारी तो ला।
    सच मे एक चिंगारी चाहिये.
    धन्यवाद

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  5. एक चिंगारी की ही तो ज़रूरत है. बहुत ही सुंदर रचना. नव वर्ष आप और आपके परिवार के लिए मंगलमय हो.

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  6. नये साल का लेकर आ

    गया पहचानो मुझे देखो

    इक झोला है, मैं बोला है।

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  7. mast hai...gaagar mein saagar bharne jaisa tha...kam shabdo mein badi baat

    नये साल की सुभकामनायें :)

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  8. बहुत सुन्दर !!

    सादर

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  9. इस वासंती बचपन में,
    किसने ये पतझर घोला?
    ...Lajwab hai...badhai.

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  10. चिंगारी की मानिंद है
    यह रचना.
    =========
    बधाई
    डॉ.चन्द्रकुमार जैन

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