फूल अकेला ही बहार के मन्ज़र जैसा लगता है;
प्यासे को तो क़तरा-क़तरा सागर जैसा लगता है।
दीवारों का ये जंगल जिसमें सन्नाटा पसरा है-
जिस दिन तुम आ जाते हो, सचमुच घर जैसा लगता है।
उसका चरचा हो तो मन में लहरें उठने लगती हैं;
उसका नाम झील में गिरते कंकर जैसा लगता है।
छाया की उम्मीद करें क्या गमलों की हरियाली से;
नया शहर बूढ़ी आंखों को बंजर जैसा लगता है।
इस निज़ाम में अहल-ऐ-जुनूं कुछ कर गुज़रें तो कर गुज़रें;
अहल-ऐ-ख़िरद की बातें सुन कर तो डर जैसा लगता है।
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aap haemsha achcha hi likhtey haen
ReplyDeleteवाह ! वाह ! वाह !
ReplyDeleteलाजवाब ! बेहतरीन !
हरेक शेर सीधे दिल में उतर जाने वाली.
बहुत बहुत आभार,इस सुंदर ग़ज़ल को पढ़वाने के लिए.
बहुत ही सुंदर गजल दिल खुश हो गया इसे पढकर
ReplyDeleteउसका चरचा हो तो मन में लहरें उठने लगती हैं;
उसका नाम झील में गिरते कंकर जैसा लगता है।
प्लीज आप बुरा मत मानना बस ये एक आपसे विमर्श ही है मेरा कि यहां पर उसका चरचा की जगह अगर उसकी चरचा हो तो कैसा रहेगा
बाकी आप लेखक हैं और आपके पास शब्दों का भंडार के साथ साथ ज्ञान का भी भंडार है
जय श्री राम
किस किस की तारीफ़ करें हम, किसको छोड़ें बतालायें
ReplyDeleteहर इक शेर गज़ल के सौ दीवानों जैसा लगता है
उसका चरचा हो तो मन में लहरें उठने लगती हैं;
ReplyDeleteउसका नाम झील में गिरते कंकर जैसा लगता है।
वाह वाह क्या बात है, मेरे मन की बात आप ने लिख दी.
धन्यवाद
अमर ज्योति जी , आपकी ग़ज़लें लाज़वाब हैं ।सरदी में बड़े ही सहज एवं जनजीवन से जुड़े बिम्बों का प्रयोग किया है ।जिंतनी प्रशंसा की जाए ,कम है ।
ReplyDeletebahut behtreen gazal ,,,
ReplyDeletebahut hi sundar bhaav..
appko bahut badhai...
vijay
pls visit my blog for new poems: http://poemsofvijay.blogspot.com/
सुभान अल्लाह! कमाल के शेर हैं सारे!
ReplyDeleteइतने दिनों बाद आपके ब्लोग पे आये, मजा आ गया गज़ल पढ के !
बहुत आभार !
सादर
मार डाला !!! अमर जी !.. बहुत बढिया....
ReplyDeleteरिपुदमन
Sadabahaar ghazal hai Dr. sahib!! Aaj bhii taroo tazaa !
ReplyDeleteAapko padhna hardum ek sukhad anubhuti! Aabhar :)