Friday, December 19, 2008

फूल अकेला

फूल अकेला ही बहार के मन्ज़र जैसा लगता है;
प्यासे को तो क़तरा-क़तरा सागर जैसा लगता है।

दीवारों का ये जंगल जिसमें सन्नाटा पसरा है-
जिस दिन तुम आ जाते हो, सचमुच घर जैसा लगता है।

उसका चरचा हो तो मन में लहरें उठने लगती हैं;
उसका नाम झील में गिरते कंकर जैसा लगता है।

छाया की उम्मीद करें क्या गमलों की हरियाली से;
नया शहर बूढ़ी आंखों को बंजर जैसा लगता है।

इस निज़ाम में अहल-ऐ-जुनूं कुछ कर गुज़रें तो कर गुज़रें;
अहल-ऐ-ख़िरद की बातें सुन कर तो डर जैसा लगता है।

10 comments:

  1. वाह ! वाह ! वाह !
    लाजवाब ! बेहतरीन !
    हरेक शेर सीधे दिल में उतर जाने वाली.

    बहुत बहुत आभार,इस सुंदर ग़ज़ल को पढ़वाने के लिए.

    ReplyDelete
  2. बहुत ही सुंदर गजल दिल खुश हो गया इसे पढकर


    उसका चरचा हो तो मन में लहरें उठने लगती हैं;
    उसका नाम झील में गिरते कंकर जैसा लगता है।

    प्‍लीज आप बुरा मत मानना बस ये एक आपसे विमर्श ही है मेरा कि यहां पर उसका चरचा की जगह अगर उसकी चरचा हो तो कैसा रहेगा

    बाकी आप लेखक हैं और आपके पास शब्‍दों का भंडार के साथ साथ ज्ञान का भी भंडार है
    जय श्री राम

    ReplyDelete
  3. किस किस की तारीफ़ करें हम, किसको छोड़ें बतालायें
    हर इक शेर गज़ल के सौ दीवानों जैसा लगता है

    ReplyDelete
  4. उसका चरचा हो तो मन में लहरें उठने लगती हैं;
    उसका नाम झील में गिरते कंकर जैसा लगता है।
    वाह वाह क्या बात है, मेरे मन की बात आप ने लिख दी.
    धन्यवाद

    ReplyDelete
  5. अमर ज्योति जी , आपकी ग़ज़लें लाज़वाब हैं ।सरदी में बड़े ही सहज एवं जनजीवन से जुड़े बिम्बों का प्रयोग किया है ।जिंतनी प्रशंसा की जाए ,कम है ।

    ReplyDelete
  6. bahut behtreen gazal ,,,
    bahut hi sundar bhaav..

    appko bahut badhai...

    vijay
    pls visit my blog for new poems: http://poemsofvijay.blogspot.com/

    ReplyDelete
  7. सुभान अल्लाह! कमाल के शेर हैं सारे!
    इतने दिनों बाद आपके ब्लोग पे आये, मजा आ गया गज़ल पढ के !
    बहुत आभार !
    सादर

    ReplyDelete
  8. मार डाला !!! अमर जी !.. बहुत बढिया....

    रिपुदमन

    ReplyDelete
  9. Sadabahaar ghazal hai Dr. sahib!! Aaj bhii taroo tazaa !

    Aapko padhna hardum ek sukhad anubhuti! Aabhar :)

    ReplyDelete